चिंतन धरोहर: इस प्रकार चित्त को रखें शांत, जानिए चित्तशुद्धि के उपाय
चिंतन धरोहर ध्यान और अध्यात्म के लिए चित्त को शुद्ध करना बहुत ही महत्वपूर्ण है। जो इस क्रिया को किए बिना ध्यान करता है उसका चित्त दोड़ता है। चित्तशुद्धि का शास्त्रों में एक उपाय दिया है। व्यक्ति के लिए चित्तशुद्धि आवश्यक है।

नई दिल्ली, आचार्य विनोबा भावे; जो लोग चित्त को शुद्ध किए बिना ध्यान करने की, एकाग्र होने की कोशिश करते हैं, तो चित्त दौड़ता है। ध्यान के लिए शरीर का नहीं, चित्त का स्नान होना चाहिए, तभी ध्यान सधेगा। वास्तव में परमात्मा अंदर है, हृदय में। उस पर आवरण है बुद्धि का, हृदय का। जैसे लालटेन के अंदर ज्योति होती है, पर उस पर कांच का आवरण होता है। कांच पर गंदगी हो, तो अंदर की ज्योति साफ नहीं दिखती। वैसे ही बुद्धि पर गंदगी है, तो अंदर परमात्मा की ज्योति नहीं दिखती। इसीलिए एकाग्रता नहीं आती। इसके लिए चित्तशुद्धि आवश्यक है।
चित्तशुद्धि का शास्त्रों में एक उपाय दिया है, जिसे प्रतिपक्ष भावना कहते हैं। मैंने इसे स्वयं आचरण में लाने की कोशिश की है। क्रोध की प्रतिपक्ष भावना क्या है? जिस पर क्रोध आया, उसके पास जाना, उससे क्षमा मांगना, जिससे क्रोध मिटे। मन में किसी को मारने की इच्छा उठे, तो उसके पास जाएं, प्रेमपूर्वक उसकी मदद करें। इसका परिणाम यह होगा कि इससे द्वेषभावना मिट जाएगी। किसी से अनबन नहीं रहेगी। चित्त में जो दोष था, वह निकल गया, इतना अनुभव आएगा।
यह मेरा अपना अनुभव है। शास्त्रकारों ने दूसरा उपाय बताया है। मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा- ये चार भावनाएं हैं। जो सुखी हैं, उनके साथ मैत्री। जो दुखी हैं उनके लिए करुणा। किसी ने पुण्यकर्म (अच्छा काम) किया, उसके लिए मुदित होना। आज तो लोगों को ईर्ष्या होती है कि अमुक मुझसे आगे निकल गया, उधर ध्यान न देना। मैंने अपनी नई खोज निकाली है। कल्पना यह की है कि दूसरों के दोष तो देखना ही नहीं, अपने भी दोष नहीं देखना। दोष तो अनंत होते हैं, फिर भी एक-आध गुण तो होगा ही।
किसी में दया, किसी में प्रेम, किसी में शौर्य, किसी में साहस, किसी में उत्साह आदि-आदि। इसके तहत मैंने दूसरों के गुण देखे और अपने भी। मुझमें कौन-सा गुण है? मैंने देखा कि मुझमें करुणा है, तो उस करुणा को बढ़ाते जाना है। अपनी छोटी करुणा से ईश्वर की बड़ी करुणा तक एक लाइन खींचें। इस बिंदु से उस पहाड़ तक जाना है। यह रेखा ही अपना मार्ग है। जैसे जैसे गुण बढ़ेगा, आपमें एकाग्रता आती जाएगी। किसी भी काम में चित्त की एकाग्रता आवश्यक है। चाहे व्यवहार हो या परमार्थ, चित्त की एकाग्रता के बिना उसमें सफलता मिलना कठिन है। परंतु यह सधे कैसे? बाहर का अपरंपार संसार, हमारे मन में भरा रहता है, उसे बंद किए बिना एकाग्रता सधना असंभव है।
एकाग्रता केवल आसन जमाकर बैठने से प्राप्त नहीं हो सकती। हमारे व्यवहार को शुद्ध होना चाहिए। व्यवहार व्यक्तिगत लाभ के लिए, वासनातृप्ति के लिए अथवा भौतिक चीजों के लिए नहीं करना चाहिए। एकाग्रता के लिए ऐसी जीवनशुद्धि आवश्यक है। एकाग्रता में सहायक होती है जीवन की परिमितता यानी हमारा सब काम नपा-तुला होना चाहिए। गणित शास्त्र का यह नियम हमारी सभी क्रियाओं में आना चाहिए। आहार और निद्रा नपी-तुली होनी चाहिए। जीवन में नियमन और परिमितता लाएं। निंदा या स्तुति न सुनें। सदोष वस्तु तो दूर, निर्दोष वस्तु का भी आवश्यकता से अधिक सेवन न करें। फलाहार शुद्ध है, लेकिन उसका भी अधिक सेवन न करें। इंद्रियों को यह भय रहे कि हम अनियमितता बरतेंगे, तो भीतर का मालिक हमें सजा देगा।
नियमित आचरण को ही जीवन की परिमितता कहते हैं। एकाग्रता के लिए समदृष्टि भी होनी चाहिए। सारी सृष्टि मंगलमय लगनी चाहिए। यदि हमारे मन में यह निश्चय न हो कि यह सृष्टि शुभ है, तो चित्त की एकाग्रता नहीं हो सकती। तब तक मैं शंकायुक्त हो अपने चारों ओर देखता रहूंगा। जब तक यह खयाल दिमाग से न निकलेगा कि रक्षक मैं अकेला हूं, बाकी सब भक्षक हैं, तब तक एकाग्रता नहीं आएगी। समदृष्टि की भावना करना ही एकाग्रता का उत्तम मार्ग है। सर्वत्र मांगल्य देखते जाइए, चित्त अपने आप शांत हो जाएगा।

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