Move to Jagran APP

वल्लभाचार्य के अनुसार जीव ही ब्रह्म है

कृष्ण को ही ब्रह्म का स्वरूप मानना उनके प्रति समर्पण पुष्टिमार्ग का अवलंब है। वल्लभाचार्य ने इस मार्ग को पुष्टि दी और कृष्ण भक्ति की धारा देश में बहाई।

By Preeti jhaEdited By: Published: Tue, 11 Apr 2017 03:55 PM (IST)Updated: Tue, 11 Apr 2017 04:07 PM (IST)
वल्लभाचार्य के अनुसार जीव ही ब्रह्म है
वल्लभाचार्य के अनुसार जीव ही ब्रह्म है

शंकराचार्य और वल्लभाचार्य : शंकराचार्य और वल्लभाचार्य दोनों ने अद्वैतवाद का प्रतिपादन किया है। शंकरचार्य ने ब्रह्म को ही परमतत्व कहा है। वल्लभाचार्य का भी यह कथन है कि ब्रह्म माया सम्बन्ध से रहित होने के कारण शुद्ध है। शंकरचार्य ने जल में प्रतिबिम्बित सूर्य के दृष्टांत से जीव को ब्रह्म का प्रतिबिम्ब माना है। उसी प्रकार वल्लभाचार्य ने जल में प्रतिबिम्बित चंद्र के दृष्टांत से यह प्रतिपादित किया है कि देहादि का जन्म, बंध, दु:खादि रूप धर्म जीव का ही है, ईश्वर का नहीं। 

शंकरचार्य केवल द्वैतवादी हैं, जबकि वल्लभाचार्य शुद्धाद्वैतवादी। शंकरचार्य का मत है कि ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती, यानी जब तक जीव को स्वरूप ज्ञान (अहं ब्रह्मास्मि, यह ज्ञान) नहीं होता, तब तक मोक्ष नहीं मिल सकता, जबकि वल्लभाचार्य का विचार है कि भक्ति से ही मुक्ति मिल सकती है, ज्ञान से नहीं। वल्लभाचार्य का सिद्धांत पक्ष शुद्धाद्वैत और आचार पक्ष पुष्टिमार्ग के नाम से विख्यात है। यह पुष्टिमार्ग सेवामार्ग भी कहलाता है। सेवामार्ग के दो भाग हैं-नामसेवा और रूपसेवा। 

रूपसेवा के भी तीन प्रकार हैं: तनुजा, वित्तजा और मानसी। मानसी सेवा के दो मार्ग हैं- मर्यादा मार्ग और पुष्टिमार्ग। वल्लभ के अनुसार संसारी जीव ममत्व और माया के वशीभूत होकर ब्रह्म से विच्छिन्ना होता है। पतिरूप या स्वामी रूप से ब्रह्म (श्रीकृष्ण) की सेवा करना उसका धर्म है। ब्रह्म रमण करने की इच्छा से जीव और जड़ का आविर्भाव करता है। ब्रह्म निर्गुण और सगुण दोनों है, अत: श्रीकृष्ण कहलाता है। अग्नि के स्फुलिंगों की भांति जीव अनेक हैं। व्यामोहिका माया से बद्ध संसारी जीव जब भक्ति से अपने मूल स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, तब मुक्त कहलाते हैं। वल्लभाचार्य कहते हैं कि अविद्या का सम्बन्ध होने से संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं-दैव और असुर। दैव जीव के भी दो भेद हैं-मर्यादा मार्गीय और पुष्टि मार्गीय।

महाप्रभु की 84 बैठकें: श्री वल्लभाचार्य जी ने अपनी यात्राओं में जहां श्रीमदभागवत का प्रवचन किया था अथवा जिन स्थानों का उन्होंने विशेष माहात्म्य बतलाया था, वहां उनकी बैठकें बनी हुई हैं, जो 'आचार्य महाप्रभु जी की बैठकें' कहलाती हैं। वल्लभ संप्रदाय में ये बैठकें मन्दिर देवालयों की भांति ही पवित्र और दर्शनीय मानी जाती है। इन बैठकों की संख्या 84 है, और ये समस्त देश में फैली हुई हैं। इनमें से 24 बैठकें ब्रजमंडल में हैं, जो ब्रज चौरासी कोस की यात्रा के विविध स्थानों में बनी हुई हैं। 

loksabha election banner

तीन प्रकार के जीव: भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह को पुष्टि कहा गया है। भगवान के इस विशेष अनुग्रह से उत्पन्ना होने वाली भक्ति को 'पुष्टिभक्ति' कहा जाता है। जीवों के तीन प्रकार हैं।

 पुष्टि जीव जो भगवान के अनुग्रह पर निर्भर रहते हुए नित्यलीला में प्रवेश के अधिकारी बनते हैं। मर्यादा जीव जो वेदोक्त विधियों का अनुसरण करते हुए भिन्न- भिन्न लोक प्राप्त करते हैं। और प्रवाह जीव, जो जगत प्रपंच में ही निमग्न रहते हुए सांसारिक सुखों की प्राप्ति हेतु सतत चेष्टारत रहते हैं।

 कृष्ण को ही ब्रह्म का स्वरूप मानना और उनके प्रति समर्पण पुष्टिमार्ग का अवलंब है। वल्लभाचार्य ने इस मार्ग को पुष्टि दी और कृष्ण भक्ति की धारा पूरे देश में बहाई। उन्होंने बताया कि ईश्वर और जीव में कोई भेद नहीं है। 


ब्रह्म का अंश हैं जीव: 
वल्लभाचार्य के अनुसार जीव ब्रह्म ही है। यह भगवत्स्वरूप ही है, किन्तु उनका आनन्दांश-आवृत रहता है। जीव ब्रह्म से अभिन्ना है, जब परब्रह्म की यह इच्छा हुई कि वह एक से अनेक हो जाए तो अक्षर ब्रह्म हजारों की संख्या में लाखों जीव उसी तरह से उद्भूत हुए, जैसे कि आग में से हजारों स्फुलिंग निकलते हैं। कुछ विशेष जीव अक्षर ब्रह्म की अपेक्षा सीधे ही परब्रह्म से आविर्भूत होते हैं। जीव का व्युच्चरण होता है उत्पत्ति नहीं। जीव इस प्रकार ब्रह्म का अंश है और नित्य है। 

लीला के लिए जीव में से आनन्द का अंश निकल जाता है, जिससे की जीव बंधन और अज्ञान में पड़ जाता है। जीव का जन्म और विनाश नहीं होता, शरीर की उत्पत्ति और नाश होता है। शंकरचार्य जीवात्मा को ज्ञानस्वरूप मानते हैं। वल्लभाचार्य के अनुसार वह ज्ञाता है। जीव अणु है किन्तु वह सर्वव्यापक और सर्वज्ञ नहीं है, चैतन्य के कारण वह भोग करता है। उनके अनुसार जगत ब्रह्मरूप ही है।

कार्यरूप जगत कारणरूप ब्रह्म से आविर्भूत हुआ है। सृष्टि ब्रह्म की आत्मकृति है। ब्रह्म से जगत आविर्भूत हुआ, फिर भी ब्रह्म में कोई विकृति नहीं आती। यही अविकृत परिणामवाद है। जगत की न तो उत्पत्ति होती है और न ही विनाश। उसका आविर्भाव-तिरोभाव होता है।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.