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    जीव और ईश्वर

    By Edited By:
    Updated: Wed, 20 Jun 2012 01:18 PM (IST)

    ईश्वर और मनुष्य का संबंध चुंबक और लोहे जैसा होता है। लेकिन लोहे पर ज्यादा कीचड़ लगा हो, तो चुंबक उसे नहीं खींचता। कीचड़ को धोने के बाद ही ईश्वर आकर्षित करता है। रामकृष्ण परमहंस का चिंतन..

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    एक की संख्या के बाद अनेक शून्य लगाकर बड़ी से बड़ी संख्या पाई जा सकती है, पर यदि उस एक को मिटा दिया जाए, तो शून्यों का कोई मूल्य नहीं रहता। उसी प्रकार, जब तक जीव (मनुष्य) एक-स्वरूप ईश्वर के साथ युक्त नहीं होता, तब तक उसकी कोई कीमत नहीं होती।

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    कारण जगत में सभी को ईश्वर के साथ जुड़ने पर ही मूल्य प्राप्त होता है। जब तक वह मूल्य प्रदान करने वाले ईश्वर के साथ संयुक्त रहकर उन्हीं के लिए कार्य करता है, तब तक उसे अधिकाधिक श्रेय प्राप्त होता रहता है। इसके विपरीत जब वह ईश्वर की उपेक्षा करते हुए अपने स्वयं के गौरव के लिए बड़े-बड़े कार्य सिद्ध करने में जुट जाता है, तब उसे कोई लाभ नहींमिलता।

    ईश्वर और जीव का बहुत ही निकट का संबंध है। जैसे लोहे और चुंबक का संबंध। लेकिन ईश्वर जीव को आकर्षित क्यों नहीं करता? जैसे लोहे पर बहुत अधिक कीचड़ लिपटा हो, तो वह चुंबक से आकर्षित नहीं होता। उसी तरह जीव मायारूपी कीचड़ में अत्यधिक लिपटा हो, तो उस पर ईश्वर के आकर्षण का असर नहीं होता। फिर जिस प्रकार कीचड़ को जल से धो डालने पर लोहा चुंबक की ओर खिंचने लगता है, उसी प्रकार जब जीव प्रार्थना और पश्चाताप के आंसुओं से माया के कीचड़ को धो डालता है, तब वह तेजी से ईश्वर की ओर खिंचता चला जाता है।

    जीवात्मा (मनुष्य) और परमात्मा (ईश्वर) का योग वैसा ही है, जैसे घड़ी का छोटा कांटा और बड़ा कांटा। दोनों घंटे में एक बार मिलकर एक हो जाते हैं। दोनों परस्पर संबद्ध तथा एक-दूसरे पर आश्रित हैं। यद्यपि साधारणतया दोनों अलग प्रतीत होते हैं, फिर भी अनुकूल अवस्था प्राप्त होते ही वे एक हो जाते हैं। जिस प्रकार जल प्रवाह में एक लकड़ी अड़ा देने से जल के दो भाग हो जाते हैं, उसी प्रकार एक अखंड परमात्मा माया के कारण जीवात्मा और परमात्मा के रूप में बंटा हुआ प्रतीत होता है। पानी और बुलबुला वस्तुत: एक ही है। बुलबुला पानी में ही उत्पन्न होता है, पानी में ही रहता है और पानी में ही समा जाता है। उसी प्रकार जीवात्मा और परमात्मा वस्तुत: एक ही हैं। उनमें अंतर यह है कि एक सीमित है, तो दूसरा अनंत।

    अनंत ईश्वर को जानना नमक के टुकड़े का समुद्र की गहराई नापने जैसा प्रयास है। नमक का डेला समुद्र की गहराई नापने जैसे ही उतरता है, वह घुलकर विलीन हो जाता है। इसी प्रकार जीव भी ईश्वर की थाह लेने, उसे जानने जाता है, तो अपना पृथक अस्तित्व खो देता है और ईश्वर के साथ एकरूप हो जाता है।

    मनुष्य की देह हांडी की तरह है और मन, बुद्धि, इंद्रियां पानी, चावल और आलू। हांडी में पानी, चावल और आलू डालकर आग पर रख देने से वे गर्म हो जाते हैं और अगर कोई उसे हाथ लगाए, तो उसका हाथ जल जाता है। वास्तव में जलाने की शक्ति हांडी, पानी, चावल या आलू में से किसी में नहीं है। वह शक्ति तो उस आग में है, फिर भी उनसे हाथ जलता है। इसी प्रकार मनुष्य के भीतर विद्यमान ईश्वरीय शक्ति के कारण ही मन, बुद्धि, इंद्रियां कार्य करती हैं और जैसे ही इस शक्ति का अभाव हो जाता है, वे निष्क्रिय हो जाती हैं।

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