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    तप कर संत बनीं राबिया बसरी

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    Updated: Wed, 06 Jun 2012 01:16 PM (IST)

    जीवन के संघर्ष में तपकर राबिया बसरी सूफी संत बनीं और उन्होंने लोगों को मानवता की शिक्षा दी. ...और पढ़ें

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    किसी सूफी फकीर ने कहा है -

    हद तपे तो औलिया, बेहद तपे सो पीर. हद बेहद दोऊ तपे, वाको नाम फकीर।

    हद और बेहद को पार करके ही मनुष्य तन-मन से ऊपर उठ जाता है। सूफी संत तो अपनी रूह (आत्म-तत्व) को परमात्मा के साथ एकाकारकर लेते हैं। फिर स्त्री-पुरुष, अमीर-गरीब जैसी बातों का मतलब ही खत्म हो जाता है। सूफियों का मानना है कि परमात्मा इंसान को बाहरी तौर पर नहीं, बल्कि कर्र्मो से परखता है। इसी तरह कष्टों और साधना से तपकर राबिया बसरी पहली महिला सूफी संत बनीं। उन्होंने परमात्मा से प्रार्थना की थी, हे परमात्मा, अगर मैंने आपकी उपासना नर्क के भय से की हो, तो मुझे नर्क की अग्नि में डाल दें। अगर मैंने आपकी उपासना स्वर्ग प्राप्ति के लिए की हो, तो मुझे स्वर्ग से सदा के लिए वंचित कर दें। परंतु हे परमेश्वर, अगर मैंने आपकी उपासना केवल आपको पाने के लिए की हो, तो मुझे अपनी कृपादृष्टि से कभी महरूम न करें.।

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    राबिया बसरी का जन्म 717 ई. में बसरा में हुआ था। मशहूर सूफी और 114 किताबों के लेखक हजरत फरीदुद्दीन अत्तार ने अपनी किताब तजकिरात उल औलिया में राबिया की जीवनी विस्तार से लिखी है।

    राबिया का जन्म अत्यंत गरीब परिवार में हुआ था। जिस रात राबिया का जन्म हुआ, उस रात घर में दीपक जलाने को तेल तक नहीं था। कहा जाता है कि उस रात माता-पिता को स्वप्न आया। कोई कह रहा था- यह बच्ची परमात्मा की प्रिय है। आगे चलकर यह बड़ी संत बनेगी।

    लेकिन कुछ साल बाद ही राबिया पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। राबिया के माता-पिता का देहांत हो गया। बसरा में भयानक अकाल पड़ गया, जिसमें राबिया की तीनों बहनें उनसे बिछड़ गईं। राबिया को किसी व्यक्ति ने पकड़ कर छह दरहम में बेच दिया। राबिया का कष्टों के साथ रिश्ता हो गया। ऐसे में उन्होंने परमात्मा से अपना संबंध बनाए रखा। हर कष्ट में उन्होंने परमात्मा को पुकारा। कहा जाता है कि कष्टों में तपकर परमात्मा की प्रार्थना में लीन राबिया के चेहरे पर प्रकाश आ गया था और उस व्यक्ति ने उन्हें छोड़ दिया।

    राबिया रेगिस्तान में अपने आध्यात्मिक सफर पर निकल पड़ीं। उन्होंने हजरत हसन बसरी को अपना मुर्शिद (गुरु) बनाया। राबिया पूरी उम्र अविवाहित रहीं और लोगों को मानवता की शिक्षा देती रहीं। उनके पास सामान के नाम पर एक टूटा घड़ा, एक चटाई और एक ईंट थी। चटाई पर वे साधना करती थीं और ईंट उनका तकिया थी। 801 ई. में राबिया का देहांत हुआ। राबिया की दरगाह येरुशलम के करीब है, जहां इस राह के मुसाफिर श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

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