Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    बुद्धि और हृदय

    By Edited By:
    Updated: Tue, 02 Apr 2013 03:16 PM (IST)

    हृदय को नजरअंदाज कर बुद्धि का अनुसरण करने से हम स्वार्थी बन जाते हैं। स्वामी विवेकानंद का चिंतन.. ...और पढ़ें

    Hero Image

    कोई भी धर्मग्रंथ हमें धार्मिक नहीं बना सकता। चाहे हम दुनिया के सारे धर्मग्रंथ पढ़ डालें, परंतु फिर भी ईश्वर या धर्म का हमें तनिक भी ज्ञान नहीं होता। हमारी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होती। दुनिया के विद्वानों ने भले ही हमारी बुद्धि प्रखर कर दी हो, पर हम ईश्वर तक नहीं पहुंच सके। पाश्चात्य संस्कृति का दोष यह है कि हम बुद्धि का संस्कार करते समय हृदय के संस्कार की ओर ध्यान ही नहीं देते। इसका परिणाम यह होता है कि मनुष्य दस गुना स्वार्थी हो जाता है। यदि हृदय और बुद्धि में विरोध उत्पन्न हो, तो हृदय का अनुसरण करना चाहिए, क्योंकि बुद्धि केवल एक तर्क के क्षेत्र में ही काम कर सकती है। केवल हृदय ही हमें उच्चतम भूमिका पर आरूढ़ कराता है, जहां तक बुद्धि नहीं पहुंच सकती। हृदय, बुद्धि का अतिक्रमण कर अंत:स्फूर्ति को पा लेती है। बुद्धि से कभी अंत:स्फूर्ति प्राप्त नहीं होती। अंत:स्फूर्ति का कारण केवल ज्ञानोद्भासित हृदय ही है। हृदयशून्य मनुष्य कभी स्फूर्तिमान नहीं बन सकता। प्रेममय व्यक्ति की समस्त क्रियाएं उसके हृदय से अनुप्राणित होती हैं। जिस तरह बुद्धि ज्ञान का साधन है, उसी तरह हृदय अंत:स्फूर्ति का। एक अपढ़ मनुष्य को कोई ज्ञान नहीं होता, पर वह भावना प्रधान होता है। उसमें हृदय है, तो वह शैतान नहीं हो सकता। वहीं एक प्राध्यापक बुद्धिमान और शैतान दोनों एक साथ हो सकता है। हमें बुद्धि के परे जाना ही पढ़ेगा। मनुष्य की प्रज्ञा, ज्ञान-शक्ति, विवेक, बुद्धि, उसका हृदय, ये सब संसाररूपी क्षीरसागर के मंथन में लगे हुए हैं। दीर्घकाल तक मथने के बाद उसमें से मक्खन निकलता है और यह मक्खन है ईश्वर। हृदयवान मक्खन पा लेते हैं और कोरे बुद्धिमानों के लिए सिर्फ छाछ बचती है।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर