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    कर्म बनाता है महान

    By Edited By:
    Updated: Tue, 26 Feb 2013 12:11 PM (IST)

    संत गुरु रविदास जी ने मानवता की सेवा में किए गए कर्म को प्रमुखता दी। उन्होंने ऊंच-नीच और पाखंड का भी विरोध किया।

    माघी पूर्णिमा को काशी के एक साधारण परिवार में जन्मे संत रविदास ने अपने असाधारण चिंतन एवं कर्मयोग के द्वारा आध्यात्मिक जगत में प्रतिष्ठा पाई। उन्होंने मानवता की सेवा को ही धर्म की संज्ञा दी और उन्होंने लोगों को बताया कि व्यक्ति का धर्म कोई भी हो, लेकिन कर्म ही उसे महान बनाता है।

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    मान्यता है कि अल्पायु में ही संत रविदास धर्म-कर्म की ओर प्रवृत्त हो गए थे। उनके पिता ने उन्हें अपने पैतृक व्यवसाय में लगाया। वे अपने काम को पूजा मानकर करते, बचे हुए समय में लोगों को कर्म-धर्म की शिक्षा देते और साधु-संतों व दार्शनिकों का सान्निध्य प्राप्त करते। कहीं वह संन्यासी न बन जाएं, इसलिए कम उम्र में ही उनका विवाह कर दिया गया, परंतु उनकी दिनचर्या में कोई अंतर नहीं आया। उन्होंने पत्‍‌नी को भी ईश्वरभक्ति की ओर प्रवृत्त कर दिया। गुरु रविदास अपने परिश्रम से प्राप्त धन को साधु-संतों और गरीबों की सेवा में लगा देते थे। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि गृहस्थ जीवन में रहकर भी ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। लोग उनके दर्शन से प्रभावित होकर उनके शिष्य बनते चले गए। मान्यता है कि मीराबाई उनकी शिष्या थीं।

    संत रविदास मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि मानते थे। उनका मानना था कि यदि धर्म के आचरण में मानवीय मूल्यों का ध्यान नहीं रखा, तो वह धर्म व्यर्थ है। उनका मानना था कि धर्माचरण का अभिप्राय ही मानवीय मूल्यों का उत्कर्ष करना है।

    रविदास जी के जीवन के बारे में अनेक कथाएं मिलती हैं, जिनमें उन्होंने पाखंडी लोगों के कुचक्त्र को निष्फल किया था। चाहे वह कसौटी से कंगन निकालने की हो, जिसके उपरांत मन चंगा, तो कठौती में गंगा की कहावत चल निकली, या फिर पारस पत्थर मिलने की कहानी।

    संत रविदास ने ऊंच-नीच की भावना तथा ईश्वर के नाम पर पाखंड को निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिल-जुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया। उनका विश्र्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रंथों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है।

    रविदास जी मानते थे कि भक्ति के लिए सदाचार, लोगों की सेवा तथा सद्व्यवहार जरूरी है। अभिमान त्यागकर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया। अपने एक भजन में उन्होंने कहा, कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै। तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै। अर्थात ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है, जो अभिमान-शून्य रहकर पाई जा सकती है। जैसे विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है, जबकि छोटी सी चींटी आसानी से चुन लेती है। इसी प्रकार अहंकार को त्याग कर विनम्र आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है। संत रविदास के अनुसार, प्रेममूलक भक्ति के लिए अहंकार की निवृत्ति आवश्यक है। भक्ति और अहंकार एक साथ संभव नहीं है। जब तक साधक अपने साध्य के चरणो में अपना सर्वस्व अर्पण नहीं करता, तब तक उसे लक्ष्य की सिद्धि नहीं हो सकती।

    उनका कहना था कि कोई व्यक्ति अपनी जाति से नहीं, बल्कि अपने कर्म से महान बनता है। इसी तरह ईश्‌र्र्वर भक्ति और वेदों के पठन-पाठन पर समस्त मानव जाति का अधिकार है।

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