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    चेतना को बनाएं उ‌र्ध्वमुखी

    हम सभी जीवों में चेतना के रूप में जो विद्यमान हैं, वही महासरस्वती हैं। अपनी चेतना को ऊर्धवमुखी बनाना ही ज्ञान स्वरूपा मां सरस्वती की उपासना करना है। उनके वैदिक स्वरूप पर प्रकाश डाल रहे हैं प्रो. लक्ष्मीश्वर झा.

    By Edited By: Updated: Fri, 15 Feb 2013 03:07 PM (IST)

    भगवती सरस्वती विशुद्ध ज्ञान स्वरूपा हैं। उन्हें सामवेदात्मक शुद्ध सत्व-स्वरूप आदित्य के धर्म की प्रवर्तिका माना जाता है। मां सरस्वती प्रत्येक जीव में शुद्ध चेतना के रूप में प्रतिष्ठित रहती हैं। चूंकि हमारे भीतर चेतना रूप में सरस्वती विराजमान हैं, इसलिए हमें अपनी चेतना को श्रेष्ठ कायरें में लगाकर उसे ऊर्धवमुखी बनाना चाहिए। वसंत पंचमी के दिन माता सरस्वती की पूजा का यही निहितार्थ है।

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    माता सरस्वती के इस स्वरूप को प्रकाशित करते हुए सरस्वती कवच में कहा गया है- विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदी दिव्यचक्षुषे। श्रेय: प्राप्तिनिमित्ताय नम: सोमार्धधारिणे।। अर्थात ये महादेवी जब लोक में प्रकट होती हैं, तब सरस्वती के रूप में विशुद्ध ज्ञान धारण किए होती हैं। ज्ञान ही उनका शरीर होता है। ऋक, यजु: और साम ही उनके नेत्र होते हैं। ऐसी सरस्वती को श्रेय प्राप्ति के लिए मनुष्य को आराधना करनी चाहिए।

    कहा जाता है कि जिस प्रकार भू, भुव:, स्व: (अग्नि, वायु और आदित्य) आदि तत्व अभिन्न भाव से रहते हैं, वैसे ही महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के रूप में मूल वेदतत्व स्वरूपिणी महादेवी अभिन्नभाव से स्थित रहती हैं। दुर्गा सप्तशती में ऋक का स्वरूप महाकाली को, यजु: का महालक्ष्मी को और साम का स्वरूप महासरस्वती को बताया गया है।

    पौराणिक ग्रंथों की मान्यता है कि जिस प्रकार जगत की सृष्टि की इच्छा से मूल तत्त्वात्मक वेद यज्ञ संपन्न करने के लिए ऋक, यजु: सामात्मक हो जाता है, उसी प्रकार जगत मूलात्मिका महादेवी स्वयं जगत की सृष्टि की इच्छा से तीन रूपों में विभक्त हो जाती हैं। दुर्गा सप्तशती में स्वयं जगदंबिका कहती हैं - मैं तो एक ही हूं। मेरे जो अनेक रूप दिख रहे हैं, वे मेरी विभूतियां हैं।

    दुर्गा सप्तशती में पंचम अध्याय से प्रारंभ तृतीय चरित में महादेवी सरस्वती का चरित्र है। इसमें कहा गया है कि समस्त विश्व में जो चेतना व्याप्त होती है, वह महासरस्वती हैं। अर्थात समस्त जीवों में, जिनमें मनुष्य भी शामिल है, चेतना के रूप में स्वयं सरस्वती विद्यमान रहती हैं। इसके कारण मनुष्य अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक चेतनावान है। इसीलिए वह प्रजापति के सबसे नेदिष्ठ (प्रजापतेर्नेदिष्ठो हि मानव:) है। नेदिष्ठ का अभिप्राय है समीप रहने वाला। अत: मनुष्य मानव कहलाता है, जिसका अर्थ है कि मनुष्य का स्वरूप नया नहीं है, अपितु समस्त देवतामय प्रजापति का ही स्वरूप है। वस्तुत: वही प्रजापति इस पृथ्वी पर अपनी चेतना विशेष के कारण मनुष्य के रूप में अवस्थित हैं। महत्वाकर्माणि सीम्यतीति मनुष्य:। अर्थात जो सोच-विचार कर कार्य का संपादन करता है, उसे मनुष्य कहते हैं। सभी प्राणियों में मनुष्य इसीलिए श्रेष्ठ है, क्योंकि उसकी चेतना इतनी विकसित होती है कि वह देवता का स्वरूप बन जाता है। उसकी पांच ज्ञानेंद्रियां पूर्णत: विकसित होती हैं, जो सभी ओर से ज्ञान का आहरण करती हैं और मनुष्य को देवतुल्य बना देती हैं। तभी महासरस्वती की स्तुति में सप्तशती में कहा गया है- ब्रंास्वरूपिणी महादेवी को प्रणाम है, जो जगत को ज्ञान प्रदान कर उसका कल्याण करती हैं। उस ब्रंास्वरूपिणी से उत्पन्न प्रकृति-पुरुषात्मक जगत में प्रकृतिभूत उस महादेवी को तथा करुणामयी कल्याणी भद्रा स्वरूपिणी महादेवी सरस्वती को हम देवतागण प्रणाम करते हैं। सप्तशती में ही कहा गया है- सभी प्राणियों में चेतना, बुद्धि, शक्ति, तृष्णा, शांति, लज्जा आदि अनेक रूपों में रहने वाली महासरस्वती को प्रणाम है। सप्तशती के एक श्लोक में कहा गया है कि सभी इंद्रियों की अधिष्ठात्री सभी जीवों में सदा वास करती हैं तथा चिति (चेतना) रूप में समस्त विश्व को व्याप्त कर रहने वाली देवी सरस्वती हमारा कल्याण करें।

    अत: वसंत पंचमी पर हमें महासरस्वती के इस चेतनामय स्वरूप को समझना चाहिए और अपनी इंद्रियों के द्वारा सद्ज्ञान का आहरण करके अपने भीतर अवस्थित इस चेतन तत्व को ऊर्धवमुखी बनाना चाहिए। एक श्रेष्ठ मनुष्य बनना ही महासरस्वती की श्रेष्ठ आराधना होगी।

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