कुंभ पर्व और नागा संन्यासी
भारतीय धर्म-संस्कृति, जीवन दर्शन एवं परंपरा के दर्शन का सुयोग यदि एक साथ उपलब्ध होता है तो वह प्रयाग का कुंभ ही है। संस्कृति की इस प्रवाह को लोक कल्याण से जोड़ने में शैवों एवं वैष्णव संतों, आचार्यो व अखाड़ों की भूमिका अप्रतिम है।
भारतीय धर्म-संस्कृति, जीवन दर्शन एवं परंपरा के दर्शन का सुयोग यदि एक साथ उपलब्ध होता है तो वह प्रयाग का कुंभ ही है। संस्कृति की इस प्रवाह को लोक कल्याण से जोड़ने में शैवों एवं वैष्णव संतों, आचार्यो व अखाड़ों की भूमिका अप्रतिम है। यही कारण है कि कुंभ पर्व की ऐतिहासिकिता उसका नैसर्गिक सौन्दर्य तब तक अपूर्ण माना जाता है जब तक शैव वैष्णव संतों एवं इनके अखाड़ों की यहां उपस्थिति नहीं होती। कुंभ महापर्व को संगठित व विशाल समागम का रूप देने में 6 वीं शती के महान संत एवं अद्वैत मत के प्रचारक आद्य शंकराचार्य का योगदान अविस्मरणीय है।
भारतीय संस्कृति सभ्यता एवं धर्म की एकता वाली विचार धारा को शंकराचार्य ने पल्लवित एवं पुष्पित किया। संपूर्ण भारत को एक सूत्र में बांधने का कार्य उन्हीं जैसे महान मानव के द्वारा संभव था। अत: आदि गुरु शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म के व्यापक प्रभाव के बाद सनातन धर्म के जीर्णोद्धार का बीड़ा उठाया। देश को एक सूत्र में बांधने के लिये उन्होंने ज्योतिर्मठ, श्रृंगेरीमठ, गोवर्धन मठ और शारदा मठ नामक चार मठ स्थापित किये जिन्हें क्रमश उद्दाम्नाय, दक्षिणाम्नाय, पूर्वाम्नाय और पश्चिमाम्नाय के नाम से जाना जाता है। इन मठों के लिये क्षेत्र पद संप्रदाय गोत्र वेद उपनिषद महावाक्य इष्टदेव और तीर्थ भी उन्होंने निर्धारित कर दिये। साथ ही अपनी शिष्य परंपरा को भी उन्होंन इन मठों के लिये नियुक्त कर दिया। ये शिष्य दशनामी संन्यासियों के नाम से विख्यात हुए। कुंभ पर्व परंपरा जो पहले से चली आ रही थी वह बौद्ध काल में शायद महादान पर्व के रूप में बदल गई होगी। ईस महादान पर्व का उल्लेख सातवीं शताब्दी के चीनी यात्री नसांग ने भी अपने यात्रा विवरण में किया है। तब भी साधु सन्यासी कुंभ पर्व की तरह प्रयाग और हरिद्वार आदि स्थानों में सम्पन्न होने वाले इन महादान पर्वो में सम्मिलित होते थे। इन सम्मेलनों में सम्राट हर्षवर्धन (612-647ई.) जैसे राजा अपनी संपत्ति को प्रत्येक 6 या बारह वर्षो में आकर विद्वानों साधुओं गरीबों एवं अनाथों में बांट देते थे। इस सम्मेलनों में राष्ट्र को उन्नत करने के लिये गोष्ठियां होती थीं। भिक्षुओं एवं साधुओं के माध्यम से राष्ट्र में हुए कार्यो की भी समीक्षा होती थी। इस पर्व पर भाषा, प्रान्त, रहन सहन बोल चाल खान पान और जीवन शैली की विभिन्नता कहीं आड़े नहीं आती बल्कि सभी स्नानार्थी अमृत कलश से छलके हुए बूंदों को प्राप्त करने हेतु एक ही संकल्प अपना परिवार व देश तथा विश्व का कल्याण हो लेकर ब्रंाकुण्ड में नहाने पहुंचते हैं।
संन्यासियों में नागा संन्यासी की अत्यंत प्राचीन परंपरा इस देश में मिलती है। वेद और पौराणिक काल में कई ऋषि इस परंपरा के मूलस्त्रोत रहे हैं। दत्तात्रेय, शुकदेव, अवधूत मुनि और कपिल, पतंजलि आदि ऐसे ऋषि रहे हैं जिनका इस नागा संन्यासियों के विशिष्ट सम्प्रदाय से गहरा संबंध रहा है। कुंभ के संदर्भ में मध्यकालीन युग का इतिहास न होने के कारण नागा संन्यासियों, शैवों वैष्णवों के अखाड़ों का तथ्यात्मक विवरण व इतिहास नहीं मिलता किन्तु प्रसिद्ध इतिहासकार यदुनाथ सरकार के अनुसार भारत में नागा संप्रदाय की परंपरा प्राग् ऐतिहासिक है। सिन्धु की रम्य घाटी में स्थित विख्यात मोहनजोदड़ो की खुदाई में प्राप्त मुद्रा तथा उस पर पशुओं द्वारा पूजित एवं दिगंबर रूप में विराजमान पशुपति का अंकन नागा संन्यासियों के प्राचीन स्वरूप का परिचय देता है। मान्यता है कि शैव नागा संन्यासियों का वीर शैव धर्म नहीं महर्षि लाकुलीश जो कृष्ण के समकालीन थे इन्हीं का चलाया हुआ था। इन्हीं के 18 शिष्यों प्रशिष्यों द्वारा द्वादश ज्योतिर्लिगों तथा योरप, ऐशिया, ईरान आदि देशों में शिवलिंगों की स्थापना करायी गई। पंच अग्नि अखाड़ा के महंत गोविन्दानंद जी ने अपने कुंभ विषयक ग्रंथ में वीर शैव नागाओं के विषय में प्रकाश डाला है-
धूली धूसर गात्राणि धूतचित्तो निरामया: वृक्षे मूले स्थिता सम्यक् अंगे लिंग धारिण:।।
सस्त्रिका निस्त्रिकाश्चैव कंदमूलफलाशिन:।
सदोपवीतिनो भव्य सदा वद्ध शिषेन च।
प्रदोष शिवरात्री च व्रतं लिंगार्चनं चरेत्।।
स्पष्ट होता है कुंभ आदि पर्वो में आने वाले नागा, शैव सन्यासी शिखा सूत्रधारी तथा सप्त्नीक और निपत्नीक दोनों होते थे। संन्यासियों के शक्ति के समुचित उपयोग हेतु देश के विभिन्न भागों में नागा सन्यासी अखाड़ों की स्थापना की गयी। दशनामी संन्यासियों के सात अखाड़े अटल, आवाहन, आनंद, निरंजनी, महानिर्वाणी, जूना तथा अग्नि अखाड़े तथा बाद में वैष्णव अखाड़ों की तीन अनियां-दिगंबर, निर्वाणी तथा निर्मोही की स्थापना हुयी।
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