जानें, कब किया जाता है नामकरण संस्कार और क्या है इसका धार्मिक महत्व
ज्योतिषों की मानें तो शिशु के जन्म के बाद सूतक काल प्रारंभ होता जाता है जो दसवें दिन खत्म होता है। हालांकि जाति के आधार पर सूतक निर्धारित होता है लेकिन आमतौर पर दसवें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है।

वर्तमान समय में सनातन धर्म में सोलह संस्कारों का विधान है। इससे पूर्व उत्तर वैदिक काल में 25 संस्कारों का विधान था। वहीं, दैविक काल में चालीस संस्कारों किए जाते थे। इनमें एक संस्कार नामकरण है। सभी धर्मों में नामकरण संस्कार का विधान है, लेकिन सनातन धर्म में इसका विशेष महत्व है। ऐसा कहा जाता है कि नामकरण से शिशु के संस्कार का पता चलता है। इस संस्कार से शिशु में कर्म की प्रवृति जागृत होती है। अत: नामाकरण संस्कार किया जाता है। आइए, इस संस्कार के बारे में सबकुछ जानते हैं-
नामाकरण संस्कार कब किया जाता है
ज्योतिषों की मानें तो शिशु के जन्म के बाद सूतक काल प्रारंभ होता जाता है, जो दसवें दिन खत्म होता है। हालांकि, जाति के आधार पर सूतक निर्धारित होता है, लेकिन आमतौर पर दसवें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। इस दिन पूजा-पाठ के बाद बच्चे को शहद का स्वाद चटाया जाता है। अगर किसी कारणवश यह संस्कार दसवें दिन नहीं किया जाता है, तो तीन महीने बाद या अगले साल किया जाता है।
नामाकरण संस्कार के बाद सबसे पहले भगवान भास्कर को फिर धरती माता को प्रणाम कराया जाता है। तदोउपरांत, देवी-देवताओं सहित कुल देवी-देवताओं का आशीर्वाद दिलाया जाता है। इस समय शिशु के दीर्घायु और जीवन में उच्चतम स्थान प्राप्त करने की प्रार्थना की जाती है। ऐसा माना जाता है कि कुंडली के अनुसार राशि देखकर शिशु को नाम दिया जाता है, जिसमें एक नाम सार्वजनिक और एक निजी नाम दिया जाता है। निजी नाम केवल माता-पिता को पता होता है।
नामाकरण संस्कार का महत्व
नामकरण संस्कार से शिशु दीर्घायु होकर अपने जीवन में यश, कृति, सुख, समृद्धि और सफलता पाता है। कालांतर से नामाकरण संस्कार का विधान किया जाता है। वर्तमान समय में इसका महत्व बढ़ गया है। इससे जातक कर्मशील होता है। इस संस्कार में कुंडली देखकर शिशु को राशि अनुसार नाम दिया जाता है। इससे शिशु के जीवन में सफल होने की संभावना बढ़ जाती है। इसके लिए शिशु का नामाकरण संस्कार अवश्य करना चाहिए।
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