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    क्या है आचमन क्रिया और क्यों है यह आवश्यक?

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    Updated: Sat, 24 May 2014 01:32 PM (IST)

    आचमन सभी प्रकार के कमरें यानी सद्कर्म और निष्काम कर्म का बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है। केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि आरोग्य शास्त्र की दृष्टि से भी आचमन को महत्वपूर्ण माना गया है। आचमन की एक रोचक बात यह है कि यदि आप गलती से असत्य बात बोल जाएं तो आचमन अवश्य करना चाहिए। ऐसे में असत्य भाषण का कुपरिणाम नहीं होता। मनुस्मृति में क

    आचमन सभी प्रकार के कमरें यानी सद्कर्म और निष्काम कर्म का बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है। केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि आरोग्य शास्त्र की दृष्टि से भी आचमन को महत्वपूर्ण माना गया है।

    आचमन की एक रोचक बात यह है कि यदि आप गलती से असत्य बात बोल जाएं तो आचमन अवश्य करना चाहिए। ऐसे में असत्य भाषण का कुपरिणाम नहीं होता।

    मनुस्मृति में कहा गया है कि- नींद से जागने के बाद, भूख लगने पर, भोजन करने के बाद, छींक आने पर, असत्य भाषण होने पर, पानी पीने के बाद, और अध्ययन करने के बाद आचमन जरूर करें।

    आचमन के बारे में सूक्ष्म निरीक्षण करने के बाद यह सिद्ध हो गया है कि मनुस्मृति में आचमन के बारे में कही गई बात सही है। इन क्रियाओं के बाद हमारे मुंह में लार स्त्रावित होता है। ऐसे में आचमन ग्रहण करने से शरीर को अच्छा ही होता है।

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    शास्त्रों में कहा गया है कि त्रिपवेद आपो गोकर्णवरद् हस्तेन त्रिराचमेत्। यानी आचमन के लिए बाएं हाथ की गोकर्ण मुद्रा ही होनी चाहिए तभी यह लाभदायी रहेगा। गोकर्ण मुद्रा बनाने के लिए दर्जनी को मोड़कर अंगूठे से दबा दें। उसके बाद मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका को परस्पर इस प्रकार मोड़ें कि हाथ की आकृति गाय के कान जैसी हो जाए।

    आचमन( ब्रह्मतीर्थ) को आत्मतीर्थ भी कहते हैं। हथेली पर कलाई के पास का हिस्सा ब्रह्मतीर्थ कहलाता है। ऐसी मुद्रा में जल पीने की क्रिया तीन बार करें। चौथी बार बाएं हाथ के ब्रह्मातीर्थ के ऊपर से पानी थाली में छोड़ें। यह क्रिया आचमन कहलाती है।

    आचमन के बारे में स्मृति ग्रंथ में लिखा है कि प्रथमं यत् पिबति तेन ऋग्वेद प्रीणाति। यद् द्वितीयं तेन यजुर्वेद प्रीणाति। यत् तृतीयं तेन सामवेद प्रीणाति।

    श्लोक का अर्थ है कि आचमन क्रिया में हर बार एक-एक वेद की तृप्ति प्राप्त होती है। प्रत्येक कर्म के आरंभ में आचमन करने से मन, शरीर एवं कर्म को प्रसन्नता प्राप्त होती है। आचमन करके अनुष्ठान प्रारंभ करने से छींक, डकार और जंभाई आदि नहीं होते हालांकि इस मान्यता के पीछे कोई उद्देश्य नहीं है।

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