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    व्रत त्योहार- आत्मचिंतन का अवसर

    By Shivani SinghEdited By:
    Updated: Tue, 05 Apr 2022 04:14 PM (IST)

    मनुष्यों की एक कमजोरी है कि आपकी इच्छाएं आपको बैठने नहीं देतीं। आप कुछ न कुछ करते ही रहते हैं। ऐसे में आपको कुछ पल विश्रम की स्थिति में ले जाना अत्यंत ...और पढ़ें

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    जानिए व्यक्ति के जीवन में व्रत-त्योहार का महत्व

    नई दिल्ली, आध्यात्मिक चिंतक साक्षी श्री: हमारे पूर्वज अध्यात्म के सबसे बड़े विज्ञानी थे। उन्होंने बहुत पहले जान लिया था कि जिस जीवन में कोई उत्साह नहीं, उल्लास नहीं, वह किसी काम का नहीं। इसलिए उन्होंने व्रत-त्योहारों की ऐसी परंपरा डाली, जो वर्ष भर चलें। खेत में हल चलाना है तो उसका त्योहार, बीज बोने का उत्सव और फिर फसल घर आई तो उसका भी उत्सव। ये व्रत-त्योहार खेती, मौसम, ऋतुओं और मानव शरीर के इनके साथ अनुकूलन के लिए बनाए गए। किसी त्योहार में कोई विशेष व्यंजन बनता है तो किसी त्योहार में कोई अन्य। यह भी अकारण नहीं है। हमारे त्योहारों में आयुर्वेद के अनुसार दिनचर्या व ऋतुचर्या का भी पूरा पालन दिखता है। किसी पूर्णिमा को होली, रक्षाबंधन तो किसी अमावस्या को दीवाली के दीये से जगमग करना। नये मौसम का आरंभ उत्सव के साथ और उत्सव के साथ विदाई। इतनी वैज्ञानिकता है, इतना धन्यवाद का भाव है हममें।

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    हमारे पूर्वजों ने विचारशक्ति और संकल्पशक्ति के प्रयोग के विज्ञान को समझ लिया था। व्रत से शरीर व मन के विकार तो खत्म होते ही हैं, परंतु इसका मूल उद्देश्य होता है संकल्प शक्ति को विकसित करना। यदि आपकी संकल्प शक्ति मजबूत है तो इसका अर्थ है कि आप दृढ़चरित्र, दृढ़प्रतिज्ञ व्यक्ति हैं। संकल्पवान व्यक्ति ही जीवन में सफल होता है। जिस व्यक्ति में मन, वचन एवं कर्म की दृढ़ता नहीं है, वह जीवन में असाधारण सफलताएं नहीं प्राप्त कर सकता। इसलिए व्रत-उपवास की परंपरा डाली गई।

    मनुष्यों की एक कमजोरी है कि आपकी इच्छाएं आपको बैठने नहीं देतीं। आप कुछ न कुछ करते ही रहते हैं। ऐसे में आपको कुछ पल विश्रम की स्थिति में ले जाना अत्यंत आवश्यक है। इसीलिए दुनिया के सभी धर्मो ने ऐसी व्यवस्थाएं कीं कि मनुष्य को कुछ समय विश्राम मिल सके। बुक आफ जेनेसिस में कहा गया है कि लगातार काम करते रहना धर्म के विरुद्ध है। हमारा सनातन धर्म तो है ही उत्सवों का धर्म! हमने इतने व्रत-त्योहार बनाए ही इसलिए हैं कि आप थोड़ी देर दुखों को भूलकर सुख का अनुभव करें और विश्रम करना सीख लें। थोड़ा बैठ सकें, आत्मचिंतन कर सकें। हमारे अध्यात्म के मनीषी जानते थे कि शांत होने अर्थात मस्तिष्क में विचारों का शोर कम होने पर ही आप अपने विचारों को देख पाएंगे। विचारों को देखने के बाद ही साक्षी भाव का उदय होगा। तभी आप जान पाएंगे कि इस दुनिया में जो कुछ भी हो रहा रहा है, वह आप नहीं कर रहे हैं! आपकी हैसियत सिर्फ देखने वाले की है। फिर क्यों इतनी आपाधापी! कम से कम इन त्योहारों में थोड़ा ठहर जाएं, बैठ जाएं, आत्मचिंतन करें।

    स्वानुशासन के लिए रखें व्रत- डा. पूर्णिमा अग्रवाल

    अपनी भौतिक आवश्यकताओं का परित्याग करना उपवास है। कम मात्र में भोजन या फलाहार लेकर हम इंद्रियों पर नियंत्रण करना सीखते हैं। इससे हमारे शरीर और आत्मा के बीच एक रागात्मक संबंध स्थापित हो जाता है। उपवास केवल देवी या देवता के प्रति समर्पण ही नहीं, बल्कि स्वयं को अनुशासित करने का उपकरण भी है। व्रत कायिक, वाचिक और मानसिक होते हैं। शरीर, वाणी और मन को नियंत्रण में लेना व्रत के अंतर्गत आता है।

    स्वास्थ्य और धर्म दोनों ही दृष्टि से उपवास का विशेष महत्व है। आयुर्वेद की दृष्टि में उपवास तन-मन की शुद्धि का उपाय है। आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘चरक संहिता’ ने भी उपवास के अनेक लाभ बताए हैं। यह चंचल मन की गति पर अंकुश लगाता है। उपवास के दौरान व्यक्ति गंभीरतापूर्वक नियम धर्म से चलता है, वह क्रोध आदि समस्त बुराइयों से दूर रहकर ईश्वर भक्ति में लीन रहने का प्रयत्न करता है। उपवास से ध्यान व एकाग्रता में वृद्धि होती है।

    व्रत का अर्थ संकल्प लेना है और उपवास का अर्थ स्वयं के निकट होना। संकल्प हम निराहार रहने का लें या कोई अन्य शुभसंकल्प, वह व्रत ही है। इसलिए जो लोग अशक्त व बीमार हैं, उन्हें निराहार व्रत नहीं रखना चाहिए।

    Pic Credit- Freepik