Vikram Samvat: विक्रम संवत् के अनुशासन से बंधे हुए हैं हमारे आचार-विचार, जानिए इसका महत्व
विक्रम संवत् के अनुशासन से बंधे हुए हैं हमारे आचार-विचार। इसके मास पक्ष और तिथियों का आधा-अधूरा ज्ञान होने के बावजूद नई और पुरानी पीढ़ी के लोग विक्रम संवत् के साथ दिल से जुड़े हैं क्योंकि हमारे धार्मिक रीति-रिवाज जन्म-विवाह-मृत्यु से संबंधित सामाजिक व्यवहार पर्व और त्योहार इसी पर निर्भर हैं। डा. मुरलीधर चांदनीवाला मानते हैं कि आज समय है अपनी संस्कृति को दोबारा समझने और उचित सम्मान देने का।

डा. मुरलीधर चांदनीवाला, नई दिल्ली। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रम संवत् के आरंभ होने का दिन है। यह दिन विश्व के सबसे पहले गणतंत्र का स्थापना-दिवस होने के साथ-साथ सृष्टि के आरंभ का भी दिन है। अब से 2082 वर्ष पहले शकों को परास्त कर मालव गणराज्य की जो अविस्मरणीय जीत हुई, उसे राष्ट्रीय गौरव का विषय माना जाता है। पूरा भारत आज भी इस दिन को पूरे उत्साह के साथ उत्सव के रूप में मनाता है।
घर-घर, द्वार-द्वार गुड़ी बांधने की परंपरा के कारण यह दिन गुड़ी पड़वा भी कहलाता है। गुड़ी विजयोल्लास की देवी है, नए संवत्सर की शुभ-संदेशवाहिका है। यह नव-संवत्सर की सनातन उषा ही है जो हमारे द्वार पर उत्सव बनकर आ खड़ी होती है। मगर जिस तरह हिंदी का राष्ट्रव्यापी वर्चस्व होते हुए भी वह हमारी राष्ट्रभाषा नहीं, उसी तरह विक्रम संवत् का चारों तरफ बोलबाला होते हुए भी वह राष्ट्रीय पंचांग नहीं बन सका।
हमारा राष्ट्रीय पंचांग वर्ष 1957 में घोषित हुआ। दुर्भाग्यवश शक संवत् को राष्ट्रीय पंचांग के लिए चुना गया। कहा जाता है कि तत्कालीन सरकार ने धर्म-निरपेक्ष सिद्धांतों के दबाव में आकर विक्रम संवत् को पीछे धकेला और शक संवत् को आगे किया। इस काम को इस बात से ताकत मिली कि शक संवत् ईस्वी सन् की तरह सौर गणना पर आधारित है। राष्ट्रीय पंचांग बनाते समय केवल इस बात पर जोर था कि वही संवत् स्वीकार्य हो, जो ग्रेगोरियन कैलेंडर के साथ कदमताल कर सके।
नहीं मिला उचित सम्मान
क्या यह दुख का विषय नहीं, कि सब लोग जिस तिथिपत्र के अनुसार सारे तीज-त्योहार मनाते हैं, महाकुंभ जैसा विराट पर्व मनाते हैं, मुहूर्त निकालते हैं, लोक-कला और लोक-संस्कृति से जुड़ते हैं, वह महान् विक्रम संवत् स्वतंत्र भारत में राष्ट्रीय पंचांग का हिस्सा नहीं है। सब जानते हैं कि विक्रम संवत् सूर्य की गति पर नहीं,चंद्रमा की कलाओं पर निर्भर है। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के एक-एक दिन के कलात्मक सौंदर्य के जादू से हम सब वाकिफ हैं। शक संवत् भले ही राष्ट्रीय पंचांग हो, लेकिन हम पर उसका कोई खास असर नहीं। वह विक्रम संवत् से केवल 21 वर्ष पुराना है। उसे तो उसी दिन हाशिए पर डाल दिया जाना चाहिए था, जिस दिन हमारी संस्कृति पर आक्रमण करने वाले शक पराजित हुए और विक्रम संवत् की पक्की नींव रखी गई।
आश्चर्य है कि शक संवत् बनाए रखा गया। स्वतंत्र भारत का राष्ट्रीय पंचांग एक ओर से ईस्वी सन् को पकड़े हुए है, दूसरी ओर शक संवत् को। शक और हूणों ने आक्रमण कर हमारे देश को जो हानि पहुंचाई, उसका हिसाब होने से पहले ही हमें दूसरे विदेशी आक्रांताओं का सामना करना पड़ा। अंग्रेज भी हम पर वर्षों तक राज करके चले गए, लेकिन अंग्रेजी शिक्षा को ही सब कुछ मान लेने की मानसिकता ने हमसे अमूल्य संस्कार छीन लिए। उसने हमारा संवत् ही नहीं छीना, वह सब छीन लिया, जिस पर हम गर्व कर सकते थे। अंग्रेजों ने भारत पर राज करने के लिये जान-बूझकर शक संवत् को पकड़कर रखा। भारत स्वतंत्र हुआ, तब सत्ताधारियों ने भी उसे छोड़ने का जोखिम नहीं उठाया।
जोड़कर रखने की सौगात
आक्रांताओं के अधीन रहने का दुर्भाग्य झेलते हुए हम यहां तक आ गए, किंतु जो आलोक-स्तंभ हमारे पूर्वज हिंदू नरेशों ने स्थापित किए थे, वे आज भी हमें आलोकित करते रहते हैं। विजय को समय की रेत के साथ फिसलने से बचाए रखने का ऐसा कोई और उदाहरण हमें कहीं नहीं मिलता। आश्चर्य यह कि विक्रम संवत् ने हमें हिंदू पंचांग ही नहीं दिया, अपितु वर्ष भर चलते रहने वाले तीज-त्योहारों की सौगात भी दी। यह सौगात नहीं होती, तो हमारी लोक-चेतना न जाने कब टूटकर बिखर जाती। विक्रम संवत् अपने शुरुआती दौर में कृत संवत् था, कालांतर में उज्जयिनी के मालव नरेशों की लोकप्रियता के चलते वह मालव संवत् के नाम से जाना गया। राजा भोज के समय के आसपास ही विक्रमादित्य के विरुद को अनंतकाल तक जीवंत बनाए रखने के लिए लोक में विक्रम संवत् प्रचलित हुआ।
महान हिंदू सम्राट् विक्रमादित्य ने अपनी सभा के विद्वानों की सहायता लेकर जिस संवत् को मालव-संवत् या कृत संवत् नाम देकर कालगणना का वटवृक्ष तैयार किया, उसे उनकी लंबी वंश परंपरा ने सींचा। उसकी छाया में हल जोतते हुए किसान, श्रमिक, व्यापारी, श्रेष्ठी समाज, विप्र समुदाय, योद्धा, चिकित्सक और विद्या के क्षेत्र में अपनी फसल उगाने वाले महारथियों ने नए-नए कीर्तिमान रचे। उन्हीं की बदौलत हमें भारतीय इतिहास का वह स्वर्णयुग मिला, जिस पर आज भी हमें गर्व है।
जीवन में जोड़ा विज्ञान
विद्वानों के मतानुसार, विक्रम संवत् ही आधुनिक है। इससे पहले के सप्तर्षि संवत्, युधिष्ठिर संवत्, वीर निर्वाण संवत्, बुद्धनिर्वाण संवत् प्रचलित हैं, किंतु विक्रम संवत् की जीवन-शक्ति और इसकी चमक के आगे ये सब फीके होते चले गए। विक्रम संवत् ने हमारे सामाजिक जीवन को उत्सव बनाए रखने के लिए त्योहार तय किए, सांस्कृतिक इतिहास की रचना की। इस संवत् ने संवत्सर और कालचक्र के विज्ञान को जीवन के उल्लास से जोड़कर उस उत्सव-धर्म की नींव रखी, जो हमारे संघर्ष भरे दिनों में भी जीवन का उत्साह बनाए रखने के लिए वरदान सिद्ध हुई है। अभाव और असुविधाओं में रहकर जीवन-यापन करने वाले ही हमारे यहां खुशमिजाज देखे गए हैं। ये ही वे लोग हैं जो हाट-मेले में दिखाई देते हैं, पंचक्रोशी की यात्रा में दिखते हैं, तीर्थ में डुबकियां लगाते हैं, भजन-कीर्तन में झूमते हैं। ये वे लोग हैं, जो ज्यादा आधुनिक नहीं हुए, किंतु उस संस्कृति से जुड़े हुए हैं, जो विक्रम संवत् ने हमें दी।
खोलने होंगे प्राचीन मार्ग
हमारे स्कूलों में इतिहास पढ़ाते समय आज भी ईसापूर्व (बी.सी.) और ईसापश्चात् (ए.डी.) का उल्लेख किया जाता है, जबकि विक्रमादित्य ही ईसा से 57 वर्ष पहले हुए। हमें कालगणना के अपने मानकों का प्रयोग करते रहने में क्या कठिनाई थी, यह समझ से परे है। विक्रम संवत् के आरंभ को ईसा पूर्व 57 कहने की अपेक्षा विक्रम संवत् 01 कहने में भला क्या अड़चन हो सकती है? हमारे होनहार बच्चे पूरे विश्व की सूचनाओं से परिचित हैं, किंतु भारतीय संस्कृति की बुनावट करने वाले विक्रम संवत् से उन्हें अनभिज्ञ रखने का पाप किसके माथे? हिंदू संस्कृति की दुहाई देने वालों के परिजनों से और बच्चों से पूछकर तो देखिए, कि अभी कौन सा संवत् चल रहा है? भगवान् करे, आप निराश हो कर जमीन में न धंस जाएं।
सम्राट् विक्रमादित्य से लेकर राजा भोज के काल तक की लगभग 10 सदियों में सनातन धर्म की शिक्षाओं के चलते हम जिस ऊंचाई पर थे, वह भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में दर्ज है। जब-जब शिक्षा में गिरावट आई, समाज का भी पतन हुआ। हमारे शिक्षक नई पीढ़ी को मिट्टी की गंध से दूर रखेंगे, तो वह संस्कारों से वंचित रहेगी और अपनी विरासत से भी। मैकाले की शिक्षा पद्धति को दोष देकर अपना बचाव करने के बजाय हमें वे रास्ते खुले रखने होंगे, जो प्राचीन आचार्यों ने बनाए। (लेखक भारतीय संस्कृति के अध्येता हैं)
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