स्वामी रामानंद ऐसे संत थे, जिनकी छाया तले दोनों तरह के संत-विश्राम पाते थे
स्वामी रामानंद ने ईश्वर की भक्ति का मार्ग सभी के लिए खोलने का नारा दिया। उन्होंने भक्ति मार्ग का प्रचार करने के लिए देश भर की यात्राएं कीं।
रामानंद जयंती पर विशेष जाति-पाति पूछे नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई ।।इन पंक्तियों को सामाजिक भेदभाव के खिलाफ कहा है स्वामी रामानंदाचार्य ने। आदि जगद्गुरु स्वामी रामानंदाचार्य पहले आचार्य हैं, जिनका जन्म उत्तर भारत में हुआ। भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृति के विकास में उनके विचारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उनका जन्म सन 1300 के आस-पास इलाहाबाद में माना जाता है।
रामानंदजी के पिता का नाम पुण्य शर्मा तथा माता का नाम सुशीला देवी था। आठ वर्ष की उम्र में उपनयन संस्कार होने के बाद उन्होंने वाराणसी पंच गंगाघाट के स्वामी राघवानंदाचार्य से दीक्षा प्राप्त की। तपस्या तथा ज्ञानार्जन के बाद बड़े-बड़े साधु तथा विद्वान उनके पास जटिल प्रश्नों के जवाब ढूंढ़ने आने लगे। उनके प्रयासों से ही बादशाह गयासुद्दीन तुगलक के अत्याचार बंद हुए और लोगों ने धार्मिक उत्सवों में भाग लेना शुरू किया।
उन्हें उत्तर भारत में आधुनिक भक्ति मार्ग का प्रचार करने वाले के रूप में जाना जाता है। संत कबीरदास, संत धन्ना, संत रविदास, पद्मावती और संत सुरसरी उनके प्रमुख शिष्यों में थे। इनमें कबीर दास और रविदास ने आगे चलकर काफी ख्याति अर्जित कीे। उन दोनों ने निर्गुण राम की उपासना की। स्वामी रामानंद ऐसे संत थे, जिनकी छाया तले सगुण और निर्गुण दोनों तरह के संत-उपासक विश्राम पाते थे। जब समाज में कटुता और वैमनस्य का भाव भरा हुआ था, वैसे समय में स्वामी रामानंद ने ईश्वर की भक्ति का मार्ग सभी के लिए खोलने का नारा दिया। उन्होंने भक्ति मार्ग का प्रचार करने के लिए देश भर की यात्राएं कीं।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।