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ऐसे लोग सच्ची भक्ति का अनुभव नहीं कर सकते

सुबह का समय था। आकाश में पूर्व दिशा की लालिमा सघन होकर सूर्योदय में परिवर्तित होने लगी थी। आश्रम में ऋषियों के बीच सत्संग चल रहा था। महर्षि कहोड़ कह उठे - 'भक्त का न तो कोई कर्तृत्‍व होता है और न कोई व्यक्तित्व। भक्त तो बस शून्य है, एक

By Preeti jhaEdited By: Published: Wed, 14 Oct 2015 09:50 AM (IST)Updated: Wed, 14 Oct 2015 11:44 AM (IST)
ऐसे लोग सच्ची भक्ति का अनुभव नहीं कर सकते

सुबह का समय था। आकाश में पूर्व दिशा की लालिमा सघन होकर सूर्योदय में परिवर्तित होने लगी थी। आश्रम में ऋषियों के बीच सत्संग चल रहा था। महर्षि कहोड़ कह उठे - 'भक्त का न तो कोई कर्तृत्व होता है और न कोई व्यक्तित्व। भक्त तो बस शून्य है, एक मौन निवेदन। भक्ति के अनुभव की सघनता व संपूर्णता अति विरल है। यदि जीवन में यह किसी तरह से आ भी जाए तो इसे कहना-बताना संभव नहीं हो पता।"

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महर्षि कहोड़ के इन वचनों को सुन देवर्षि नारद थोड़े सचेष्ट हुए और अनायास उनके मुख से एक सूत्र स्वरित हुआ - 'किसी विरले योग्य पात्र में ऐसा प्रेम प्रकट भी होता है।" महर्षि कहोड़ ने देवर्षि के इस सूत्र से सहमति जताते हुए कहा - 'कभी-कभी कोई ऐसा महापात्र सौभाग्यशाली होता है कि उसमें परमात्मा प्रकाशित होता है। किसी विरले भक्त में भक्ति इतनी बह उठती है कि उस पात्र के ऊपर से बहने लगता है परमात्मा।"

महर्षि की यह वाणी सत्संग में बैठे अन्य ऋषियों को पुलकित कर रही थी। ऋषियों ने सघन भक्ति के इस रूप में बारे में और भी जानने की इच्छा जताई। तब महर्षि कहोड़ बोले - 'बड़ा कठिन और परम दुर्लभ है ये सब, लेकिन यह होता है कहीं-कहीं, किसी-किसी में। आमतौर पर भाव व विचार कहे जाते हैं, लिखे जाते हैं। यह सब होता है होशपूर्वक, बौद्धिकता के साथ, लेकिन यह बस अभिव्यक्ति होती है। इसकी व्याख्या-विवेचना संभव है। परंतु जब भक्त की भक्ति से परमात्मा प्रकाशित होता है, तो वह अभिव्यक्ति नहीं, अभिव्यंजना होती है। इस अवस्था में मन, वाणी, बुद्धि और यहां तक कि मानवीय चेतना के दायरे में जो कुछ भी है, वह सब मौन-नीरव, निस्पंद हो जाता है। बस स्वत:स्फूर्त परमात्मा बह उठता है। भक्त नाच-गा उठता है।"

यह कहकर महर्षि कहोड़ थोड़ी देर चुप रहे, फिर उन्होंने आगे कहा - 'सच तो यह है कि इस अवस्था में भक्त होता है अनुपस्थित, बस भगवान होते हैं उपस्थित। भक्त होता है मौन, भगवान हो जाते हैं मुखर। इसकी अनुभूति विरले ही कर पाते हैं। इसे वही देख व समझ पाते हैं जो प्रभु पे्रम से सिक्त हैं, जो परमात्मा के परमरस से भीगे एवं उसमें डूबे हैं। क्षुद्र मन वालों के लिए यहां कोई स्थान नहीं है। ऐसे लोग सच्ची भक्ति का अनुभव नहीं कर सकते।"


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