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    चित्त की सहज एकाग्रता संभव है, यदि हम अशुचिता को धो दें...

    By Sanjay PokhriyalEdited By:
    Updated: Mon, 04 Jul 2022 06:03 PM (IST)

    चित्त की प्रसन्नता से सहज एकाग्रता आती है। चित्त की एकाग्रता के विषय में पतंजलि ने ऐसा संकेत कर रखा है कि ध्यान योग का आचरण यम-नियमपूर्वक ही करना चाहिए नहीं तो उससे वह तारक होने के बजाय मारक हो जाएगा।

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    एकाग्रता में शक्ति अवश्य है, परंतु यदि वह अनुचित हुई, तो उससे मनुष्य राक्षस भी बन सकता है।

    आचार्य विनोबा भावे। प्रसन्न चित्त में एकाग्रता स्वाभाविक होती है। मुझे इसका अनुभव है। मैं देखता हूं कि दो-चार चीजों की ओर ध्यान देना मेरे लिए मुश्किल पड़ता है। उसके लिए मुझे जरा मेहनत करनी पड़ती है। लेकिन एकाग्रता तो सहज ही हो जाती है। उसके लिए कोई कोशिश नहीं करनी पड़ती। न आंखें फाडऩी पड़ती हैं, न मुंह खोलना पड़ता है। यानी न करने में कुछ मेहनत नहीं। चित्त को इधर-उधर दौड़ाना भी नहीं। एक जगह बैठे रहना है, फिर उसमें तकलीफ क्या है? अगर तकलीफ है, तो चारों ओर दौडऩे में है। इसलिए अनेकाग्रता अस्वाभाविक होनी चाहिए और एकाग्रता स्वाभाविक। जब चित्त पर संस्कार नहीं होते, तो स्मृति भी नहीं होती। मैं कभी-कभी नक्शा देखता हूं, तब मन की स्मृतियां इधर-उधर दौड़ती हैं। फलां-फलां मनुष्य फलां-फलां गांव में रहता है और उस गांव में अमुक-अमुक सभा हुई थी। वहां एक घटना हुई... इस तरह मन कहां से कहां चला जाता है। इस तरह की अनेकविध स्मृतियां चित्त में होती हैं। इसी को चित्त की अशुचिता कहते हैं। ऐसे संस्कारों को अगर हम धो सकते हैं, तो चित्त के एकाग्र होने में देर नहीं लगेगी।

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    महाभारत में आता है कि व्यास जी की समाधि लगने में छह महीने लगे। वास्तव में पूर्ण एकाग्रता तुरंत होनी चाहिए। वह नहीं हुई। छह महीने लगे। मतलब यह कि व्यास जी को अपने चित्त के संस्कार धोने में इतना समय लगा। लेकिन यह भी हो सकता है कि स्वच्छ, निर्मल ज्ञान की प्रभा मन पर पड़े, तो चित्त एकदम एकाग्र हो सकता है, इसलिए मायूस बनने का कोई कारण नहीं है। मायूस लोगों से तुलसीदास जी कहते हैं - बिगरी जनम अनेक की, सुधरत पल लगै न आधु। अर्थात बिगड़ी बात को सुधरने में पल भर भी नहीं लगते। इसलिए डरते क्यों हैं? मान लीजिए, दस हजार वर्ष पुराना अंधकार गुफा में है। हम लालटेन लेकर गुफा में जाएंगे, तो उस अंधकार को समाप्त होने में दो-चार साल तो नहीं लगेंगे। जहां लालटेन पहुंची, वहां उस क्षण अंधकारमय संस्कार मिट सकते हैं। अंतर में एक क्षण में भी आलोक पड़ सकता है। कभी साधु-संगति से भी आलोक हो सकता है। कहीं दर्शन से भी प्रकाश मिल जाता है, तो एक क्षण में पूरा का पूरा मन धोया जा सकता है। यदि प्रकाश नहींपड़ता तो धीरे-धीरे धोना पड़ता है। यह एक लंबी साधना है। बहुत बड़ी मंजिल है और कड़ी साधना। गौड़पाद ने बताया है कि धीरज कितनी देर तक रखना चाहिए उत्-बिंदुना कुशाग्रेन उत्सेद। कुशाग्र से यानी तिनके से समुद्र का पानी उठालना। तिनके से एक-एक बूंद समुद्र से निकालो, तो जितना धीरज रखना होगा, उतने धीरज की मन को जरूरत है। उतना धीरज और उतना उत्साह मन को दिखाना होगा। मन का निग्रह करना होगा। इस तरह खेद छोड़कर, मायूसी छोड़कर उत्साह से और धीरज से काम करना होगा, तो मन का निग्रह होगा। एक ओर गौड़पादाचार्य ने धीरज की बात बताई है, तो दूसरी ओर तुलसीदास जी कहते हैं कि सुधरत पल लगै न आधु। एक ओर धीरज बताया है, दूसरी ओर यह बताया है कि एक क्षण में काम हो सकता है।

    इसके लिए मन के दरवाजे खुले होने चाहिए। कहीं से भी ज्ञान मिलता है, तो लेने की तैयारी सदा रहे। ज्ञानी से ज्ञान-ज्योति तो मिलती ही है, लेकिन बच्चे से भी मिल सकती है। उसके लिए चित्त उत्सुक और खुला होना चाहिए। उसके लिए मैं हमेशा सूर्य नाराण की मिसाल देता हूं। ज्ञानी पुरुष का लक्षण है कि वह दरवाजे को धक्का देकर अंदर प्रवेश नहीं करता, दरवाजा दरवाजा खोला जाए, तब वह अंदर आता है, वरना बाहर ही खड़ा रहता है। वैसे ही चित्त का दरवाजा अगर खोल दिया जाए और चित्त में उत्सुकता हो, तो ज्ञान मिल सकता है और ज्ञानी गुरु अंदर आ सकता है। सूर्यनारायण के समान ज्ञानी गुरु चित्त को धक्का नहीं देता। हृदय मंदिर खुला हो, धीरज हो, तो कहीं न कहीं से प्रकाश मिल ही जाएगा। जिस बात पर चित्त एकाग्र करना है, यही वही अशुभ हो, तो परिणाम भी अशुभ ही होगा।