आत्मा परमात्मा का अंश है
आत्मा परमात्मा का अंश है। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को आत्मा में लय कर देना ही योग है। इस प्रकार योग अंतर्जगत की यात्रा है। इसमें साधक को अपने भीतर उतरना होता है। वह भीतर और भीतर उतरता चला जाता है वह। फिर एक दिन वह क्षण आता है जब उसकी आत्मा प्रकाश से प्रकाशित हो उठती है। उसका अज्ञान नष्ट हो जाता है। आत्मा शरीर, मन और बु
आत्मा परमात्मा का अंश है। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को आत्मा में लय कर देना ही योग है। इस प्रकार योग अंतर्जगत की यात्रा है। इसमें साधक को अपने भीतर उतरना होता है। वह भीतर और भीतर उतरता चला जाता है वह। फिर एक दिन वह क्षण आता है जब उसकी आत्मा प्रकाश से प्रकाशित हो उठती है। उसका अज्ञान नष्ट हो जाता है।
आत्मा शरीर, मन और बुद्धि से परे है। इन तीनों को आत्मा में लय करके ही साधक आत्मानुभव की इस स्थिति को प्राप्त कर पाता है। इसी को 'गीता' में 'स्थितप्रज्ञ' कहा गया है। वस्तुत: आत्मानुभव अपने अंतर-निहित सत्य का ही साक्षात्कार है। इस स्थिति में साधक जो अनुभव करता है उसकी अभिव्यक्ति सहज संभव नहीं हो पाती। इस कारण हमारे संत और भक्त कवियों ने ईश्वर की इस अनुभूति को प्रतीकात्मक भाषा में व्यक्त किया है। संत कबीरदास और सूरदास ने ईश्वर की अनुभूति को विभिन्न प्रतीकों के रूप में व्यक्त किया है।
संत सूरदास कहते हैं कि हैं कि जैसे गूंगे को मीठा फल बहुत अच्छा लगता है, लेकिन वह उसकी अभिव्यक्ति नहीं कर सकता, कुछ वैसी ही स्थिति साधक की भी होती है। वह भी अकथनीय आनंद-रस में डूब जाता है।
आत्मतत्व के प्रकाशित होते ही साधक आत्म-साक्षात्कार के बाद सामूहिक साक्षात्कार की ओर कदम बढ़ाता है। वह अनुभव करने लगता है कि विश्व की परम सत्ता ब्रह्म शुद्ध चैतन्य स्वरूप है। वह सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है। परम सूक्ष्म चैतन्य सत्ता तत्वत: निगरुण होकर भी दृश्यमान स्थूल जगत के रूप में सगुण-साकार है। इसलिए साधक सर्वत्र, सभी में उसी का दर्शन पाने लगता है। उसका मन प्रेम और करुणा से भर जाता है और तब वह केवल अपने लिए नहीं, समाज और देश के लिए जीने लगता है। उसका प्रत्येक कर्म दूसरों के हित और कल्याण के लिए होता है। गौतम बुद्ध, महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद आदि साधक महापुरुषों का जीवन इसका प्रमाण है। आज केवल भारत को ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व को इसी योग की आवश्यकता है। योग और ध्यान के महत्व को विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी पाश्चात्य देश पहले ही समझ चुके हैं, लेकिन यह निराशाजनक है कि हम इसके महत्व को भूलते जा रहे हैं। हमें अपने उन महापुरुषों के जीवन पर निगाह डालनी चाहिए जिन्होंने इस योग का अपनाकर समाज का कल्याण किया।
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