विघटन तो वहां होता है, जहां अपेक्षाएं होती हैं
ऋषियों के बीच सत्संग चल रहा था। भक्ति के बारे में चर्चाओं के बीच देवर्षि नारद ने भक्ति-सूत्र उच्चारित किया - 'गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षण वर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्।" अर्थात यह प्रेम गुणरहित है, कामनारहित है, प्रतिक्षण बढ़ता रहता है, विच्छेदरहित है, सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर है और अनुभवरूप है। देवर्षि के श्रीमुख
ऋषियों के बीच सत्संग चल रहा था। भक्ति के बारे में चर्चाओं के बीच देवर्षि नारद ने भक्ति-सूत्र उच्चारित किया - 'गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षण वर्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्।" अर्थात यह प्रेम गुणरहित है, कामनारहित है, प्रतिक्षण बढ़ता रहता है, विच्छेदरहित है, सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर है और अनुभवरूप है। देवर्षि के श्रीमुख से इस सूत्र को सुन सभी पुलकित हो उठे।
ऋषि कहोड़ ने सत्यधृति की ओर देखते हुए कहा - 'महात्मन्, आप इसके बारे में कुछ कहें।" सत्यधृति बोले - 'हे महनीयजनो, मेरे अनुभवों और उपलब्धियों में तो मुझे ऐसी कोई व्यापकता नजर नहीं आती। परंतु हां, मेरे स्मृतिकोश में भक्त चोखामेला की कथा उद्भासित हो रही है।"
इसके उपरांत उन्होंने चोखामेला की भक्ति-कथा का वर्णन करते हुए कहा - 'चोखामेला था तो वनवासी किरात, अनपढ़ एवं द्विज जातियों के संस्कारों से वंचित, लेकिन उसके आचरण में महर्षियों की सी पवित्रता थी। उससे मेरी भेंट कण्व वन में हुई थी। फूस की झोपड़ी में उसका आवास था। नारायण के नाम के सिवाय उसका कोई आश्रय न था। मेरी जब उससे भेंट हुई तो उसके होंठों पर नारायण का नाम था, नेत्रों में अश्रु, रोम-रोम की पुलकन और प्रेम से संपूर्ण देह कंपायमान। साक्षात भगवत् प्रेम की मूर्ति लग रहा था चोखामेला। मैंने उससे जानना चाहा कि ऐसी अलौकिक भक्ति कहां से प्राप्त हुई तो उसने कहा - 'प्रभु नाम के स्मरण से।"
जब उससे पूछा कि वह भगवान से क्या चाहता है तो उसके आंसू छलक आए और वह बोला - 'अरे, मैं तो स्वयं को प्रभु में समर्पित करना चाहता हूं। प्रेम तो गुणरहित होता है। इसमें कामना का कोई स्थान नहीं है, क्योंकि कामना तो पूरी होते ही समाप्त हो जाती है, परंतु प्रेम तो प्रतिक्षण बढ़ता है। इसमें विघटन संभव नहीं है। विघटन तो वहां होता है, जहां अपेक्षाएं होती हैं। अपेक्षारहित प्रेम, समर्पित भक्त व प्रेमपूर्ण भगवान जब मिलते हैं तो उनमें प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता है। इसे सिर्फ अनुभव किया जा सकता है।""
इतना कहकर भक्त सत्यधृति थोड़ी देर के लिए चुप हो गए। फिर उन्होंने गहरी सांस लेते हुए कहा - 'उसी अनपढ़ पे्रेमी-अनुरागी भक्त चोखामेला ने मुझे पहली बार भक्ति का तत्वज्ञान दिया।"
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।