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    इस तरह न केवल रामायण बल्कि महाभारत में भी हनुमान जी ने महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई है

    By Preeti jhaEdited By:
    Updated: Tue, 23 Aug 2016 10:41 AM (IST)

    श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार माना जाता है। विष्णु ने ही राम के रूप में अवतार लिया और विष्णु ने ही श्रीकृष्ण के रूप में।

    भगवान श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार माना जाता है। विष्णु ने ही राम के रूप में अवतार लिया और विष्णु ने ही श्रीकृष्ण के रूप में। श्रीकृष्ण की 8 पत्नियां थीं- रुक्मणि, जाम्बवंती, सत्यभामा, कालिंदी, मित्रबिंदा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा। इसमें से सत्यभामा को अपनी सुंदरता और महारानी होने का घमंड हो चला था तो दूसरी ओर सुदर्शन चक्र खुद को सबसे शक्तिशाली समझता था और विष्णु वाहन गरूड़ को भी अपने सबसे तेज उड़ान भरने का घमंड था।

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    एक दिन श्रीकृष्ण अपनी द्वारिका में रानी सत्यभामा के साथ सिंहासन पर विराजमान थे और उनके निकट ही गरूड़ और सुदर्शन चक्र भी उनकी सेवा में विराजमान थे। बातों ही बातों में रानी सत्यभामा ने व्यंग्यपूर्ण लहजे में पूछा- हे प्रभु, आपने त्रेतायुग में राम के रूप में अवतार लिया था, सीता आपकी पत्नी थीं। क्या वे मुझसे भी ज्यादा सुंदर थीं?

    भगवान सत्यभामा की बातों का जवाब देते उससे पहले ही गरूड़ ने कहा- भगवान क्या दुनिया में मुझसे भी ज्यादा तेज गति से कोई उड़ सकता है। तभी सुदर्शन से भी रहा नहीं गया और वह भी बोल उठा कि भगवान, मैंने बड़े-बड़े युद्धों में आपको विजयश्री दिलवाई है। क्या संसार में मुझसे भी शक्तिशाली कोई है? द्वारकाधीश समझ गए कि तीनों में अभिमान आ गया है। भगवान मंद-मंद मुस्कुराने लगे और सोचने लगे कि इनका अहंकार कैसे नष्ट किया जाए, तभी उनको एक युक्ति सूझी । भगवान मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। वे जान रहे थे कि उनके इन तीनों भक्तों को अहंकार हो गया है और इनका अहंकार नष्ट होने का समय आ गया है। ऐसा सोचकर उन्होंने गरूड़ से कहा कि हे गरूड़! तुम हनुमान के पास जाओ और कहना कि भगवान राम, माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। गरूड़ भगवान की आज्ञा लेकर हनुमान को लाने चले गए।

    इधर श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा कि देवी, आप सीता के रूप में तैयार हो जाएं और स्वयं द्वारकाधीश ने राम का रूप धारण कर लिया।

    तब श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र को आज्ञा देते हुए कहा कि तुम महल के प्रवेश द्वार पर पहरा दो और ध्यान रहे कि मेरी आज्ञा के बिना महल में कोई भी प्रवेश न करने पाए। सुदर्शन चक्र ने कहा, जो आज्ञा भगवान और भगवान की आज्ञा पाकर चक्र महल के प्रवेश द्वार पर तैनात हो गया। गरूड़ ने हनुमान के पास पहुंचकर कहा कि हे वानरश्रेष्ठ! भगवान राम, माता सीता के साथ द्वारका में आपसे मिलने के लिए पधारे हैं। आपको बुला लाने की आज्ञा है। आप मेरे साथ चलिए। मैं आपको अपनी पीठ पर बैठाकर शीघ्र ही वहां ले जाऊंगा।

    हनुमान ने विनयपूर्वक गरूड़ से कहा, आप चलिए बंधु, मैं आता हूं। गरूड़ ने सोचा, पता नहीं यह बूढ़ा वानर कब पहुंचेगा। खैर मुझे क्या कभी भी पहुंचे, मेरा कार्य तो पूरा हो गया। मैं भगवान के पास चलता हूं। यह सोचकर गरूड़ शीघ्रता से द्वारका की ओर उड़ चले।

    लेकिन यह क्या? महल में पहुंचकर गरूड़ देखते हैं कि हनुमान तो उनसे पहले ही महल में प्रभु के सामने बैठे हैं। गरूड़ का सिर लज्जा से झुक गया। तभी श्रीराम के रूप में श्रीकृष्ण ने हनुमान से कहा कि पवनपुत्र तुम बिना आज्ञा के महल में कैसे प्रवेश कर गए? क्या तुम्हें किसी ने प्रवेश द्वार पर रोका नहीं?

    हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए सिर झुकाकर अपने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकालकर प्रभु के सामने रख दिया। हनुमान ने कहा कि प्रभु आपसे मिलने से मुझे इस क्या कोई रोक सकता है? इस चक्र ने रोकने का तनिक प्रयास किया था इसलिए इसे मुंह में रख मैं आपसे मिलने आ गया। मुझे क्षमा करें। भगवान मंद-मंद मुस्कुराने लगे।

    अंत में हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए श्रीराम से प्रश्न किया, हे प्रभु! मैं आपको तो पहचानता हूं आप ही श्रीकृष्ण के रूप में मेरे राम हैं, लेकिन आज आपने माता सीता के स्थान पर किस दासी को इतना सम्मान दे दिया कि वह आपके साथ सिंहासन पर विराजमान है।

    अब रानी सत्यभामा का अहंकार भंग होने की बारी थी। उन्हें सुंदरता का अहंकार था, जो पलभर में चूर हो गया था। रानी सत्यभामा, सुदर्शन चक्र व गरूड़ तीनों का गर्व चूर-चूर हो गया था। वे भगवान की लीला समझ रहे थे। तीनों की आंखों से आंसू बहने लगे और वे भगवान के चरणों में झुक गए। भगवान ने अपने भक्तों के अंहकार को अपने भक्त हनुमान द्वारा ही दूर किया।

    एक कथा के अनुसार

    दूसरा प्रसंग अर्जुन से जुड़ा है। आनंद रामायण में वर्णन है कि अर्जुन के रथ पर हनुमान के विराजित होने के पीछे भी कारण है। एक बार किसी रामेश्वरम् तीर्थ में अर्जुन का हनुमानजी से मिलन हो जाता है। इस पहली मुलाकात में हनुमानजी से अर्जुन ने कहा- अरे राम और रावण के युद्घ के समय तो आप थे?

    हनुमानजी- हां, तभी अर्जुन ने कहा- आपके स्वामी श्रीराम तो बड़े ही श्रेष्ठ धनुषधारी थे तो फिर उन्होंने समुद्र पार जाने के लिए पत्थरों का सेतु बनवाने की क्या आवश्यकता थी? यदि मैं वहां उपस्थित होता तो समुद्र पर बाणों का सेतु बना देता जिस पर चढ़कर आपका पूरा वानर दल समुद्र पार कर लेता।

    इस पर हनुमानजी ने कहा- असंभव, बाणों का सेतु वहां पर कोई काम नहीं कर पाता। हमारा यदि एक भी वानर चढ़ता तो बाणों का सेतु छिन्न-भिन्न हो जाता।

    अर्जुन ने कहा- नहीं, देखो ये सामने सरोवर है, मैं उस पर बाणों का एक सेतु बनाता हूं। आप इस पर चढ़कर सरोवर को आसानी से पार कर लेंगे।

    हनुमानजी ने कहा- असंभव। तब अर्जुन ने कहा- यदि आपके चलने से सेतु टूट जाएगा तो मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊंगा और यदि नहीं टूटता है तो आपको अग्नि में प्रवेश करना पड़ेगा।

    हनुमानजी ने कहा- मुझे स्वीकार है। मेरे दो चरण ही इसने झेल लिए तो मैं हार स्वीकार कर लूंगा।

    तब अर्जुन ने अपने प्रचंड बाणों से सेतु तैयार कर दिया। जब तक सेतु बनकर तैयार नहीं हुआ, तब तक तो हनुमान अपने लघु रूप में ही रहे, लेकिन जैसे ही सेतु तैयार हुआ हनुमान ने विराट रूप धारण कर लिया।

    हनुमान राम का स्मरण करते हुए उस बाणों के सेतु पर चढ़ गए। पहला पग रखते ही सेतु सारा का सारा डगमगाने लगा, दूसरा पैर रखते ही चरमराया और तीसरा पैर रखते ही सरोवर के जल में खून ही खून हो गया।

    तभी श्रीहनुमानजी सेतु से नीचे उतर आए और अर्जुन से कहा कि अग्नि तैयार करो। अग्नि प्रज्वलित हुई और जैसे ही हनुमान अग्नि में कूदने चले वैसे भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गए और बोले ठहरो! तभी अर्जुन और हनुमान ने उन्हें प्रणाम किया।

    भगवान ने सारा प्रसंग जानने के बाद कहा- हे हनुमान, आपका तीसरा पग सेतु पर पड़ा, उस समय मैं कछुआ बनकर सेतु के नीचे लेटा हुआ था। आपकी शक्ति से आपके पैर रखते ही मेरे कछुआ रूप से रक्त निकल गया। यह सेतु टूट तो पहले ही पग में जाता यदि में कछुआ रूप में नहीं होता तो।

    यह सुनकर हनुमान को काफी कष्ट हुआ और उन्होंने क्षमा मांगी। मैं तो बड़ा अपराधी निकला आपकी पीठ पर मैंने पैर रख दिया। मेरा ये अपराध कैसे दूर होगा भगवन्? तब कृष्ण ने कहा, ये सब मेरी इच्छा से हुआ है। आप मन खिन्न मत करो और मेरी इच्छा है कि तुम अर्जुन के रथ की ध्वजा पर स्थान ग्रहण करो।

    इसलिए द्वापर में श्रीहनुमान महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ के ऊपर ध्वजा लिए बैठे रहते हैं।

    महाभारत के युद्ध में श्री कृष्ण ने अर्जुन का साथ निभाया, उसका पथ प्रदर्शन किया लेकिन रक्षक हनुमान जी थे।

    रामायण में प्रमुख भूमिका निभाने वाले भगवान हनुमान महाभारत में भी उपस्थित थे। माना जाता है कि महाभारत के युद्ध में हनुमान जी ने अर्जुन की युद्ध के अंत तक रक्षा की थी।

    अपने वचन का पालन करते हुए कुरूक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन के रथ के दुवाज में हनुमान जी विराजमान हुए। युद्ध के अंतिम दिन श्रीकृष्ण ने हनुमान जी की उपस्थिति को प्रमाणित करते हुए अर्जुन को रथ से उतरने को कहा, उसके बाद श्रीकृष्ण रथ से उतरे। श्रीकृष्ण ने हनुमान जी को अर्जुन की रक्षा के लिए धन्यवाद दिया और जैसे ही हनुमान जी रथ की दुवाज से निकले वैसे ही रथ में आग लग गई। इस वाक्ये से आश्चर्यचकित अर्जुन को श्रीकृष्ण ने बताया कि युद्ध में दिव्य अस्त्रों से उनकी रक्षा हनुमान जी कर रहे थे। इस तरह न केवल रामायण बल्कि महाभारत में भी हनुमान जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।