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    Simantonnayana Sanskar: शिशु को नवग्रह मंत्रों से संस्कारित करता है यह संस्कार, जानें क्या है महत्व

    By Shilpa SrivastavaEdited By:
    Updated: Fri, 24 Jul 2020 09:00 AM (IST)

    Simantonnayana Sanskar हम आपको गर्भाधान और पुंसवन संस्कार के बारे में पहले ही बता चुके हैं और आज बारी है तीसरे संस्कार की। इस संस्कार का नाम सीमन्तोन्नयन है।

    Simantonnayana Sanskar: शिशु को नवग्रह मंत्रों से संस्कारित करता है यह संस्कार, जानें क्या है महत्व

    Simantonnayana Sanskar: हिंदू धर्म के 16 संस्कार... महर्षि वेदव्यास के अनुसार, मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक सोलह संस्कार किए जाते हैं। ये संस्कार बेहद महत्वपूर्ण होते हैं जिनका महत्व हिंदू धर्म में सर्वोपरि है। हम आपको गर्भाधान और पुंसवन संस्कार के बारे में पहले ही बता चुके हैं और आज बारी है तीसरे संस्कार की। इस संस्कार का नाम सीमन्तोन्नयन है। यह संस्कार पुंसवन का ही विस्तार है। इसका शाब्दिक अर्थ है- "सीमन्त" अर्थात 'केश और उन्नयन' अर्थात 'ऊपर उठाना'। इस संस्कार में पति अपनी पत्नी के बालों को ऊपर की ओर उठाता था। इसी संस्कार को सीमन्तोन्नयन संस्कार कहा जाता है। तो चलिए ज्योतिषाचार्य दयानंद शास्त्री जी से जानते हैं इस संस्कार का महत्व और इसे कब किया जाना चाहिए।

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    इसके लिए ऋग्वेद में में एक श्लोक है जिसका वर्णन निम्न है:

    येनादिते सीमानं नयति प्रजापतिर्महते सौभगाय!

    तेनाहमस्यै सीमानं नयामि प्रजामस्यै जरदष्टि कृणोमी!!

    इसका मतलब जिस तरह के ब्रह्मा ने देवमाता अदिति का सीमन्तोन्नयन किया था, ठीक उसी तरह से गर्भिणी का सीमन्तोन्नयन कर इसकी संतान को मैं दीर्घजीवी करता हूं।

    जानें कब होता है यह संस्कार:

    जब महिला का गर्भ 6 महीने का हो जाता है तो उस समय माता को आने वाले शिशु के लिए सीमन्तोन्नयन संस्कार प्राप्त करना चाहिए। इस संस्कार के जरिए गर्भवती महिला को मानसिक बल प्रदान किया जाता है। वहीं, उसे सकारात्मक विचारों से परिपूर्ण भी रखा जाता है। बच्चे का विकास इस दौरान हो रहा होता है ऐसे में मां के हृदय में नई-नई इच्छाएं पैदा होती हैं। शिशु के मानसिक विकास में इन इच्छाओं का पूरा होना अति आवश्यक होता है। क्योंकि वह सब सुनता समझता है। अतः छठे या आठवें महीने में इस संस्कार को कर लेना चाहिए।

    सीमन्तोन्नयन संस्कार का महत्व:

    जब पुंसवन संस्कार लिया जाता है तब तक शिशु गर्भ में एक मांस का पिंड होता है। जब शिशु चार मास का हो जाता है तो उसका शारिरिक विकास तेजी से होने लगता है। धीरे-धीरे कर सभी अंग बन जाते हैं। ठीक इसी तरह माता के शरीर में भी विलक्षण और मानसिक परिवर्तन होने लगता है। माता की इच्छाएं पूरी करना गर्भस्थ बालक के शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास के लिए आवश्यक होता है। कई बार होता है कि माता को किसी विशेष वस्तु आदि खाने की इच्छा होने लगती है। यह सब गर्भस्थ शिशु के हृदय व चेतना के कारण ही होता है। शिशु की शारीरिक जरूरतों की पूर्ति माता के शरीर के जरिए ही होती है। लेकिन गर्भस्थ बालक के मानसिक और आध्यात्मिक उत्थान के लिए गर्भ में शिक्षा दीक्षा के लिए सिद्ध गुरु का होना बेहद जरूरी हो जाता है जो सीमन्तोन्नयन संस्कार प्रदान कर सके।

    यह संस्कार करने से शिशु की ग्रहण शक्ति विकसित होती है। इससे उसे विभिन्न देवी-देवताओं, ब्रह्मा, विष्णु, शिव के मंत्रों से चैतन्य किया जाता है। यही नहीं, गर्भ में पल रहे बालक को नवग्रह मंत्रों से भी संस्कारित किया जाता है। इस संस्कार से शिशु को ग्रहों की अनुकूलता प्राप्त होती है। वहीं, अगर कोई प्रारब्धवश दुर्योग होता है तो वह भी टल जाता है। यह संस्कार गर्भस्थ शिशु के लिए अत्यंत सौभाग्य का विषय है। अगर आधुनिक तौर पर देखा जाए तो आजकल जो बेबी शॉवर किया जाता है वो पुंसवन और सीमन्तोन्नयन संस्कारों का ही आधुनिक रूप है। कई बार जरूरत होने पर पुंसवन और सीमन्तोन्नयन एक साथ भी किये जा सकते थे। लेकिन ज्योतिषाचार्य के द्वारा ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर शुभ मुहूर्त का चयन करके उस मुहूर्त विशेष में इन संस्कारों को सम्पन्न किया जाता था।

    सीमन्तोन्नयन संस्कार की विधि:

    पति गूलर की टहनी से पत्नी की मांग निकाले और ॐ भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि, ॐ भूर्विनयामि का जाप करें। इसके पश्चात पति को इस मंत्र का उच्चारण भी करना चाहिए:

    येनादिते: सीमानं नयाति प्रजापतिर्महते सौभगाय।

    तेनाहमस्यौ सीमानं नयामि प्रजामस्यै जरदष्टिं कृणोमि।।

    अर्थात् देवताओं की माता अदिति का सीमन्तोन्नयन जिस तरह से उनके पति प्रजापति ने किया था ठीक उसी तरह अपनी संतान के जरावस्था के पश्चात तक दीर्घजीवी होने की कामना करते हुए अपनी गर्भिणी पत्नी का सीमन्तोन्नयन संस्कार करता हूं। इसके बाद गर्भवती महिला को किसी वृद्धा महिला का आशीर्वाद लेना चाहिए। इसके पश्चात महिला को घी मिलाकर खिचड़ी खानी चाहिए। इस बारे में एक उल्लेख भी शास्त्रों में है:

    किं पश्यास्सीत्युक्तवा प्रजामिति वाचयेत् तं सा स्वयं।

    भुज्जीत वीरसूर्जीवपत्नीति ब्राह्मण्यों मंगलाभिर्वाग्भि पासीरन्।।

    अर्थात् खिचड़ी खिलाते समय महिला से सवाल किया गया कि क्या देखती हो तो वह जवाब देते हुए कहती है कि संतान को देखती हूं। इसके बाद ही वो खिचड़ी का सेवन करती है। जो महिलाएं संस्कार में उपस्थित होती हैं वो भी गर्भवती महिला को आशीर्वाद देती हैं कि तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हें सुंदर स्वस्थ संतान की प्राप्ति हो व तुम सौभाग्यवती बनी रहो। 

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