अहंकार का त्याग ही प्रेम की अनुभूति है
प्रेम को पाना जितना सरल है अहंकार का त्याग करना उतना ही कठिन। किंतु जो व्यक्ति स्वार्थ से परे होकर अहंकार को त्याग देता है प्रेम की अनुभूति उसे स्वत ही हो जाती है। प्रेम एक नैसर्गिक बहाव है।

प्रेम को पाना जितना सरल है, अहंकार को त्यागना उतना ही कठिन। किंतु जो व्यक्ति स्वार्थ से परे होकर अहंकार को त्याग देता है, प्रेम की अनुभूति उसे स्वत: ही हो जाती है। प्रेम एक नैसर्गिक बहाव है। यह किसी को बांधता नहीं, अपितु मुक्त करता है, जबकि अहंकार जब तक सामने वाले को वश में न कर ले तब तक संतुष्ट नहीं होता। प्राय: लोग जीवनर्पयत अपने मैं को ही साधते रहते हैं। उनके लिए प्रेम तो सिर्फ स्वार्थ सिद्धि का साधन होता है। जिसके पूर्ण होते ही वे फिर अपने मैं को साधने में लग जाते हैं। सामने वाला व्यक्ति समझता है कि वह उससे प्रेम कर रहा है, जबकि उसका आश्रित उसकी इसी भावना का प्रयोग अपने लाभ के लिए कर रहा होता है।
प्रेम और अहंकार के बीच एक बहुत ही महीन रेखा है। यह रेखा कब विलुप्त हो जाती है इस बात का भी जल्दी पता नहीं चलता। इस रेखा के विलुप्त होते ही अहम भाव उत्पन्न हो जाता है और अहंकार मनुष्य को अंधा कर देता है। प्रेम एक आनंद है। इसमें कर्तव्य का बोध उत्पन्न होता है। इसमें कुछ प्राप्त करने की भावना निमरूल हो जाती है। मनुष्य दोनों हाथों से लुटाता है, स्वयं के लिए कुछ नहीं बचाता। इसके विपरीत अहंकार चाहता है कि जो उसके पास है वह किसी अन्य के पास न हो। जहां प्रेम में मनुष्य स्वयं ही मुदित रहता है वहीं अहंकार में मनुष्य सदैव इसलिए दुखी रहता है कि कहीं कोई उससे ज्यादा प्रसन्न तो नहीं, उससे ज्यादा बड़ा तो नहीं। इसलिए जिन महापुरुषों ने प्रेम का मंत्र संसार को दिया उन्होंने सारे संसार को प्यार किया। चाहे वे गांधी हों, बुद्ध हों, विवेकानंद हों। वे पूरे संसार के सुख-दुख के साक्षी बने। उन्होंने पूरी मानवता की चिंता की और सद्मार्ग दिखाने का प्रयास किया।
कबीर दास ने सही कहा है कि ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय। अत: हम सबको सदा प्रेमपूर्वक संसार में निर्वहन करना चाहिए। तभी हमारा जीवन सफल होगा।
अंशु प्रधान
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