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    मान्यता है कि, इसके बाद संन्यासी शिव स्वरूप हो जाते है

    By Preeti jhaEdited By:
    Updated: Mon, 25 Apr 2016 02:26 PM (IST)

    संन्यास जीवन में प्रवेश करने के लिए कठिन तप से गुजरना पड़ता है। जीव को शिव बनाने की यह प्रक्रिया पांच चरणों में पूर्ण होती है।

    उज्जैन। संन्यास जीवन में प्रवेश करने के लिए कठिन तप से गुजरना पड़ता है। जीव को शिव बनाने की यह प्रक्रिया पांच चरणों में पूर्ण होती है। इसमें मनुष्य की वेशभूषा और नाम के साथ सब कुछ बदल जाता है। आध्यात्मिक शब्दों में कहे तो यह क्रम मनुष्य के कायाकल्प जैसा है। मान्यता है कि इसके बाद व्यक्ति शिव स्वरूप हो जाता है।

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    जूना अखाड़ा गुजरात पालनपुर बनास काटा के महंत शिवगिरि महाराज ने बताया दीक्षा के दौरान शिष्य को स्वयं के साथ अपने परिजन का तर्पण तक करना पड़ता है। इसके बाद सांसारिक जीवन से उसका कोई संबंध नहीं रहता। दीक्षा की यह प्रक्रिया पूर्व में तीन वर्ष में होती थी, लेकिन आज के समय में दीक्षा की यह प्रक्रिया एक ही कुंभ (सिंहस्थ) में पूर्ण करवा दी जाती है।

    दीक्षा के यह हैं चरण

    पहली- पंच गुरु दीक्षा

    सर्वप्रथम शिष्य को पंच गुरुओं द्वारा दीक्षा दी जाती है। चोटी गुरु सबसे प्रमुख रहते हैं। बाकी 4 गुरु साक्षी कहलाते हैं। प्रथम दीक्षा ग्रहण करने के बाद शिष्य आम व्यक्ति से महापुस्र्ष कहलाने लगता है।

    चोटी गुरु - सर्वप्रथम शिष्य की चोटी काटी जाती है, जो गुरु चोटी कटवाता है वह चोटी गुरु कहलाता है।

    भगवा गुरु - शिष्य को भगवा वस्त्र धारण कराने वाले भगवा गुरु कहलाते हैं।

    स्र्द्राक्ष गुरु - स्र्द्राक्ष धारण करवाने वाला गुरु स्र्दाक्ष गुरु कहलाता है।

    लंगोटी गुरु - शिष्य को लंगोट पहनाने वाला लंगोटी गुरु कहलाता है।

    भभूत गुरु - संन्यास लेने के बाद शरीर पर भस्म लगाई जाती है। जो यह भस्म लगाते हैं, वह भभूत गुरु कहलाते हैं।

    दूसरी- विर्जा हवन दीक्षा

    संन्यासी जब विर्जा हवन की दीक्षा ग्रहण करता है तब सर्वप्रथम उसका मुंडन किया जाता है। उसके बाद वह जनेऊ धारण कर हाथ में दंड व जलपात्र लेकर नदी के तट पर जाता है। यहां उसे अखाड़े द्वारा विर्जा हवन दीक्षा दी जाती है। इस दीक्षा के दौरान महापुस्र्ष पहले अपने माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी व बच्चों (परिजन) का पिंडदान करता है। इसके पश्चात वह अपना भी पिंडदान कर देता है। पिंडदान करने के बाद उसका संन्यास जीवन में दूसरा जन्म होता है। इसमें सारे सांसारिक संबंध खत्म हो जाते हैं। यह दीक्षा उज्जैन सिंहस्थ, हरिद्वार, इलाहाबाद, नासिक कुंभ में दी जाती है। सिंहस्थ में विर्जा हवन की दीक्षा दत्त अखाड़े घाट में दिलाई जाएगी।

    तीसरी- धूनी तपन संस्कार

    यह दीक्षा प्रात: 3.30 बजे दी जाती है। इससे पहले रातभर धूनी जलाई जाती है और उसके आसपास भजन किए जाते है। सुबह आचार्य महामंडलेश्वर महापुस्र्ष संन्यासी को आमंत्रित करते है और उसे मंत्रों द्वारा नया नाम दिया जाता है। इसके बाद वह अवधूत संन्यासी बन जाता है।

    चौथी- दिगंबर दीक्षा

    अवधूत संन्यासी को जो दिगंबर दीक्षा देते हैं, वे उसके छठे गुरु होते हैं। यह दीक्षा धर्म ध्वजा के नीचे दी जाती है। इस दीक्षा के पश्चात् ही संन्यासी दिगंबर साधु कहलाता है। यह दीक्षा लेने के बाद वह हमेशा नग्न नहीं रह सकता है। सिर्फ कुछ समय ही नग्न रह सकता है।

    पांचवीं- श्री दिगंबर दीक्षा

    श्री दिगंबर अपनी इच्छा या फिर गुरु की आज्ञा से बनते हैं। यह दीक्षा संबंधित अखाड़े द्वारा दी जाती है। इस दीक्षा के दौरान दिगंबर साधु को अखाड़े को गुरु दक्षिणा देना पड़ती है। उसके बाद अखाड़े द्वारा उसकी पुकार लगती है। फिर उस दिगंबर साधु के नाम के आगे श्री दिगंबर जुड़ जाता है। फिर उसे श्री दिगंबर साधु के नाम से संबोधित किया जाता है। यह दीक्षा लेने के बाद श्री दिगंबर साधु 12 माह नागा रह सकता है। श्री दिगंबर की दीक्षा लेने के बाद पलंग पर नहीं सो सकते और सिले हुए वस्त्र भी नहीं पहन सकते। पांचवीं दीक्षा लेने के इन साधुओं की शिव के समान पूजा होती है।


    उज्जैन के नागा कहलाते हैं खूनी

    नागा साधु की दीक्षा उज्जैन, हरिद्वार, इलाहाबाद व नासिक में दी जाती है। चारों जगह संन्यास लेने वाले साधुओं को अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है। उज्जैन में दीक्षा लेने वाले साधुओं को खूनी साधु कहा जाता है। क्योंकि यहां शैव और वैष्णवों में खूनी संघर्ष हुआ था। इलाहाबाद के संन्यासी को राजराजेश्वरी, हरिद्वार के साधुओं को बर्फानी और नासिक के साधुओं को खिचड़ियां साधु कहा जाता है।

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