पांडव की मां महारानी कुंती के बारें में जानें ऐसी बातें जो आपको शायद ही पता होगी
कुन्ती के वन जाते समय भीमसेन ने कहा कि 'यदि आपको अन्त में जाकर वन में तपस्या ही करनी थी तो आपने हमलोगों को युद्ध के लिये प्रेरित करके इतना बड़ा नरसंहार क्यों करवाया?'
महारानी कुन्ती जन्म से लोग इन्हें पृथा के नाम से पुकारते थे| ये महाराज कुन्तीभोज को गोद दे दी गयी थीं तथा वहीं इनका लालन-पालन हुआ| अत: कुन्ती के नामसे विख्यात हुईं|
हमारे यहाँ शास्त्रों में अहल्या, मन्दोदरी, तारा, कुन्ती और द्रौपदी - ये पाँचों देवियाँ नित्य कन्याएँ कही गयी हैं| इनका नित्य स्मरण करनेसे मनुष्य पापमुक्त हो जाता है| महारानी कुन्ती वसुदेवजीकी बहन और भगवान् श्रीकृष्णकी बुआ थीं| कुन्तीबाल्यकाल से ही अतिथिसेवी तथा साधु-महात्माओंमें अत्यन्त आस्था रखनेवाली थीं| एक बार महर्षि दुर्वासा महाराज कुन्ती भोज के यहाँ आये और बरसात के चार महीनों तक वहीं ठहर गये| उनकी सेवा का कार्य कुन्ती ने सँभाला| महर्षि कुन्ती की अनन्य निष्ठा और सेवासे परम प्रसन्न हुए और जाते समय कुन्ती को देवताओं के आवाहन का मन्त्र दे गये|
उन्होंने कहा कि 'संतान-कामना से तुम जिस देवता का आवाहन करोगी, वह अपने दिव्य तेज से तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जायगा और उससे तुम्हारा कन्या भाव भी नष्ट नहीं होगा|' दुर्वासा के चले जाने के बाद इन्होंने कुतूहलवश भगवान् सूर्य का आवाहन किया| फलस्वरूप सूर्यदेव के द्वारा कर्ण की उत्पत्ति हुई| लोकापवाद के भय के कारण इन्होंने नवजात कर्ण को पेटिका में बन्द करके नदी में डाल दिया| वह पेटिका नदी में स्नान करते समय अधिरथ नामके सारथिको मिली| उसने कर्णका लालन-पालन किया|
कुन्ती का विवाह महाराज पाण्डु से हुआ था| एक बार महाराज पाण्डु के द्वारा मृगरूपधारी किन्दम मुनि की हिंसा हो गयी| मुनि ने मरते समय उन्हें शाप दे दिया| इस घटना के बाद महाराज पाण्डु ने सब कुछ त्यागकर वन में रहने का निश्चय किया| महारानी कुन्ती भी पतिसेवा के लिये वन में चली गयीं| पति के आदेश से कुन्ती ने धर्म, पवन और इन्द्र का आवाहन किया, जिससे युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की उत्पत्ति हुई| अपनी सौत माद्री को भी इन्होंने अश्विनी कुमारों के आवाहनका मन्त्र बतलाकर उन्हें नकुल और सहदेव की माता बनने का सौभाग्य प्रदान किया| महाराज पाण्डु के शरीरान्त होने के बाद माद्री तो उनके साथ सती हो गयी, किंतु कुन्ती बच्चों के पालन-पोषणके लिये जीवित रह गयीं|
जब दुर्योधन ने पाँचों पाण्डवों को लाक्षागृह में भस्म कराने का कुचक्र रचा, तब माता कुन्ती भी उनके साथ थीं| पाण्डवों पर यह अत्यन्त विपत्ति का काल था| माता कुन्ती सब प्रकार से उनकी रक्षा करती थीं| दयावती तो वे इतनी थीं कि अपने शरण देनेवाले ब्राह्मण-परिवार की रक्षाके लिये उन्होंने अपने प्रिय पुत्र भीम को राक्षस का भोजन लेकर भेज दिया और भीम ने राक्षस को यमलोक भेजकर पुरवासियों को सुखी कर दिया| पाण्डवोंका वनवास काल बीत जाने के बाद जब दुर्योधन ने उन्हें सूई के अग्रभाग के बराबर भी भूमि देना स्वीकार नहीं किया तो माता कुन्ती ने भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा अपने पुत्रों को आदेश दिया - क्षत्राणी जिस समयके लिये अपने पुत्रों को जन्म देती है, वह समय अब आ गया है| पाण्डवों को युद्ध के द्वारा अपना अधिकार प्राप्त करना चाहिये|'
पाण्डवों की विजय हुई, किंतु वीरमाता कुन्ती ने राज्यभोग में सम्मिलित न होकर धृतराष्ट्र और गान्धारी के साथ वन में तपस्वी-जीवन बिताना स्वीकार किया| कुन्ती के वन जाते समय भीमसेन ने कहा कि 'यदि आपको अन्त में जाकर वन में तपस्या ही करनी थी तो आपने हमलोगों को युद्ध के लिये प्रेरित करके इतना बड़ा नरसंहार क्यों करवाया?' इस पर कुन्तीदेवीने कहा - 'तुम लोग क्षत्रिय धर्म का त्याग करके अपमानपूर्ण जीवन न व्यतीत करो, इसलिये हमने तुम्हें युद्ध के लिये उकसाया था; अपने सुख के लिये नहीं|' भगवान् के निरन्तर स्मरणके लिये उनसे विपत्तिपूर्ण जीवन की याचना करनेवाली माता कुन्ती धन्य हैं|
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