मन की खूबियां
अपनी शक्तियों और योग्यताओं को पहचानने का प्रयास करें। योग्यता के बल पर ही असंभव को संभव बनाया जा सकता है और अपने लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है।
यदि आप सोचते हैं कि आपमें दूसरों जितनी योग्यता नहीं है, तो यह सरासर गलत है। आपमें जो खूबियां हैं, वह अवश्य दूसरों में नहीं होंगी। अपनी शक्तियों और योग्यताओं को पहचानने का प्रयास करें। योग्यता के बल पर ही असंभव को संभव बनाया जा सकता है और अपने लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है।
पांचजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंज्य:।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंक्खं भीमकर्मा वृकोदर:।।15।।
प्रेरक सद्गुरु की देन ‘हृषीकेश:’-जो हृदय के सर्वज्ञाता हैं, उन श्रीकृष्ण ने ‘पांचजन्य शंख’ बजाया। पांचों
ज्ञानेंद्रियों को पंच तन्मात्राओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) के रसों से समेटकर अपने जन (भक्त) की श्रेणी में ढालने की घोषणा की। विकराल रूप से बहकती हुई इंद्रियों को समेटकर उन्हें अपने सेवक की श्रेणी में खड़ा
कर देना हृदय से प्रेरक सद्गुरु की देन है। श्रीकृष्ण एक योगेश्वर सद्गुरु हैं। ‘शिष्यस्तेअहम्’-भगवन्! मैं आपका शिष्य हूं। बाह्य विषय वस्तुओं को छोड़कर ध्यान में इष्ट के अतिरिक्त दूसरा न देखें, दूसरा न सुनें, न दूसरे का स्पर्श करें, यह सद्गुरु के अनुभव-संचार पर निर्भर करता है। ‘देवदत्तं धनंज्य:’ - दैवी संपत्ति को अधीन करने वाला अनुराग ही अर्जुन है। इष्ट के अनुरूप लगाव-जिसमें विरह, वैराग्य, अश्रुपात हो, ‘गदगद गिरा नयन बह नीरा।’
(रामचरितमानस, 3/15 /11)-रोमांच हो, इष्ट के अतिरिक्त अन्य विषय-वस्तु का लेशमात्र टकराव न होने पाए। उसी को अनुराग कहते हैं। यदि यह सफल होता है तो परमदेव परमात्मा में प्रवेश दिलाने वाली दैवी सम्पद् पर आधिपत्य प्राप्त कर लेता है। इसी का दूसरा नाम धनंजय भी है। एक धन तो बाहरी संपत्ति है, जिससे शरीर निर्वाह की व्यवस्था होती है, आत्मा से इसका कोई संबंध नहीं है। इससे परे स्थिर आत्मिक संपत्ति ही निज संपत्ति है।
बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को यही समझाया कि धन से संपन्न पृथ्वी के स्वामित्व से भी अमृतत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। उसका उपाय आत्मिक संपत्ति है। भयानक कर्ववाले भीमसेन ने ‘पौण्ड्र’ अर्थात
प्रीति नामक महाशंख बजाया। भाव का उद्गम और निवास-स्थान हृदय है, इसलिए इसका नाम वृकोदर है। आपका भाव, लगाव बच्चे में होता है, लेकिन वस्तुत: वह लगाव आपके हृदय में है, जो बच्चे में जाकर मूर्त
होता है। यह भाव अथाह और महान बलशाली है। उसने प्रीति नामक महाशंख बजाया। भाव में ही प्रीति निहित है, इसीलिए भीम ने पौण्ड्र (प्रीति) नामक महाशंख बजाया। भाव महान बलवान है, किंतु प्रीति-संचार के
माध्यम से। हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।।
(रामचरितमानस, 1/ 184/5)
परमहंस स्वामी अड़गड़ानंद जी कृत यथार्थ गीता से साभार
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