Pauranik Katha: जब देवर्षि नारद बन गए थे बंदर, पढ़ें यह पौराणिक कथा
Pauranik Katha एक दिन नारद मुनि घूमते-घूमते हिमालय पर्वत पर एक पवित्र गुफा में पहुंच गए। वह गुफा देवलोक समान थी। उन्होंने वहां अपनी तपोस्थली बनाई। यहां उन्होंने भगवान विष्णु की तपस्या शुरू कर दी। जब इस बात का पात देवराज इंद्र को चला तो वो चिंतित हो गए।
Pauranik Katha: एक दिन नारद मुनि घूमते-घूमते हिमालय पर्वत पर एक पवित्र गुफा में पहुंच गए। वह गुफा देवलोक समान थी। उन्होंने वहां अपनी तपोस्थली बनाई। यहां उन्होंने भगवान विष्णु की तपस्या शुरू कर दी। जब इस बात का पात देवराज इंद्र को चला तो वो चिंतित हो गए। उन्हें लगा कि कहीं उनसे उनका इंद्रलोक का सिंहासन न छिन जाए। ऐसे में इंद्र ने उनकी तपस्या भंग करने का सोचा। इसके लिए देवराज इंद्र ने कामदेव को नारद मुनि के पास भेजा।
कामदेव ने वहां पहुंचकर नारद मुनि को तपस्या में लीन देखा। तब उन्होंने अपनी माया से उनकी कामाग्नि भड़काने की कोशिश की। सबसे पहले उन्होंने ऋतु परिवर्तित की। उन्होंने बसंत ऋतु उत्पन्न की और उसके होते ही पेड़-पौधे रंग-बिरंगे पुष्प से आच्छादित होने लगे। कोयल की आवाज आने लगी। कामदेव ने नारद मुनि के पास अप्सराएं भी भेजीं। लेकिन नारद मुनि की तपस्या में कोई विघ्न नहीं पड़ा।
कामदेव को लगा कि कहीं उन्हें इस कृत्य के लिए नारद मुनि से श्राप न मिल जाए। उन्होंने नारद मुनि से क्षमा मांग ली। नारद जी ने उन्हें क्षमा भी कर दिया। इससे नारद मुनि के मन में अंहकार आ गया। वे शिवजी के पास पहुंचे। उन्होंने शिवजी के सामने खुद का बखान किया और शिवजी समझ गए कि नारद अहंकार में चूर हैं उन्होंने नारद मुनि को सलाह दी कि यह बात भगवान विष्णु से न कहे। शिवजी को पता था कि अगर विष्णु जी को नारद के अंहकार के बारे में पता चला तो वो उन्हें सजा अवश्य देंगे।
लेकिन नारद जी तो अहंकार में चूर थे। वो विष्णु जी के पास पहुंच गए। उन्हें कामदेव की माया विफल करने का वृतांत विष्णु जी को सुना दिया। नारद मुनि का अहंकार विष्णु जी कुछ देर में समझ पाए। उन्होंने नारद से कुछ कहा नहीं लेकिन उनका अहंकार तोड़ने की लीला रच डाली।
विष्णु जी से आज्ञा लेकर वे चल दिए। रास्ते में उन्हें एक नगर दिखाई दिया जो विष्णु जी की माया से बना था। यहां का राजा शीलनिधि था। उसकी पुत्री विश्वमोहिनी थी। वे इतनी सुंदर थीं कि कई राजाओं ने उनसे विवाह करने का प्रस्ताव भिजवाया था। लेकिन राजा ने उनका स्वयंवर आयोजित कर दिया जिसमें कई राजकुमार पहुंचे।
नारद मुनि नगर में पहुंचकर राजा शीलनिधि से मिलने गए। वहां राजा शीलनिधि ने उन्हें राजकुमारी विश्वमोहिनी के स्वयंवर के बारे में बताया। साथ ही उन्होंने निवेदन किया कि वो राजकुमारी की हस्तरेखा देख उनके भविष्य की जानकारी दें। जब नारद के सामने विश्वमोहिनी आई तो वह उनका रूप देख मोहित हो गए। विश्वमोहिनी की हस्तरेखा में लिखा था कि जो भी उनसे विवाह करेगा वह अमर हो जाएगा। लेकिन यह बात उन्होंने राजा और राजकुमारी को नहीं बताई। उन्होंने कुछ और बताया और वहां से चले गए।
नारद मुनि अपना वैराग्य भूल चुके थे। वे विश्वमोहिनी से विवाह करना चाहते थे। फिर उन्होंने भगवान विष्णु का ध्यान किया। उन्होंने विष्णु जी से सुंदर रूप की मांग की। वो विश्वमोहिनी से विवाह करने के लिए ऐसा कर रहे थे। भगवान विष्णु ने कहा, “नारद, तुम्हारा कल्याण हो और अंतर्ध्यान हो गए।”
उन्होंने अपनी माया से नारद मुनि को बंदर का रूप दे दिया। वे स्वयंवर के लिए निकल गए। उनका मुंह बंदर जैसा हो गया था। एक पेड़ के पीछे छिपे दो शिवगण यह सारी माया देख रहे थे। वे नारद मुनि के पीछे स्वयंवर में पहुंच गए। ये दोनों नारद मुनि के पास बैठे और उनकी रूप की प्रशंसा करने लगे। इससे उनका अहंकार और भी बढ़ गया।
जब राजकुमारी विश्वमोहिनी वरमाला लेकर आईं तो उन्होंने एक अन्य राजकुमार के गले में वरमाला डाल दी। राजकुमारी ने नारद मुनि को देखा ही नहीं। वह राजकुमार और कोई नहीं बल्कि भगवान विष्णु ही थे। यह देख नारद के मन में क्रोध और ईर्ष्या का भाव जाग उठा। इस दौरान शिवगण भी उनका परिहास करने लगे। उन्होंने कहा ऐसे मुंह को कोई दासी भी न देखे। जरा जल में अपना मुख तो देखो।
नारद मुनि ने जब अपना मुंह देखा तो उन्हें बहुत गुस्सा आया। उन्होंने शिवगणों को राक्षस बनने का श्राप दिया और विष्णु जी से मिलने निकल गए। तब तक उनका मुंह भी सामान्य हो चुका था। रास्ते में उन्हें विष्णु जी मिले। उनके साथ माता लक्ष्मी और विश्वमोहिनी भी थी। यह देख नारद मुनि विष्णु जी की माया समझ गए।
नारद मुनि का क्रोध इतना बढ़ गया था कि वे विष्णु जी को न जाने क्या-क्या कहने लगे। नारद मुनि ने कहा कि उन्होंने उनके साथ छल किया है। इसका परिणाम उन्हें भुगतना पड़ेगा। आपने मनुष्य रूप धारण कर विश्वमोहिनी को प्राप्त किया है। ऐसे में मैं आपको श्राप देता हूं कि आप मनुष्य योनी में जन्म लेंगे और स्त्री वियोग से गुजरेंगे। आपने मुझे वानर बनाया है इसलिए आपको वानरों की ही मदद लेनी होगी।
विष्णु जी ने नारद मुनि के श्राप को स्वीकार किया और अपनी माया के प्रभाव से नारद मुनि को मुक्त किया। मुक्त होने के बाद नारद मुनि को पछतावा हुआ लेकिन वो श्राप वापस नहीं ले सकते थे। इसके बाद वो शिवगण के पहुंचे और उनसे क्षमा मांगी। तब नारद मुनि ने कहा, “मेरा श्राप वापस तो नहीं हो सकता। तुम रावण और कुंभकर्ण के रूप में जन्म लोगे और पूरे विश्व पर अपने बल से विजय प्राप्त करोगे। तुम दोनों को मोक्ष की प्राप्ति भगवान श्रीराम के हाथों मृत्यु प्राप्त कर होगी। इनके श्राप के कारण ही विष्णु जी को श्री राम के रूप में जन्म लेकर सीता वियोग सहना पड़ा।
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