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    मोहक छवियों से ही निरखेंगे वह कथा राम की

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    Updated: Tue, 13 Aug 2013 12:00 PM (IST)

    सोलहवीं संवत के उत्तरार्ध में जब गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरित मानस के उपसगरें की रचना कर रहे थे, सनातन समाज की स्थिति लगातार दुर्बल होती जा रही थी। ऐसे में समाज को सबल और जागृत बनाने के उद्देश्य से गोस्वामी जी ने रामशलाका के लेखन (संवत 1655) से लेकर अपने देहावसान काल के बीच काशी के टोलों मोहल्लों में अपनी कथा के शौ

    वाराणसी। सोलहवीं संवत के उत्तरार्ध में जब गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरित मानस के उपसगरें की रचना कर रहे थे, सनातन समाज की स्थिति लगातार दुर्बल होती जा रही थी। ऐसे में समाज को सबल और जागृत बनाने के उद्देश्य से गोस्वामी जी ने रामशलाका के लेखन (संवत 1655) से लेकर अपने देहावसान काल के बीच काशी के टोलों मोहल्लों में अपनी कथा के शौर्य नायक हनुमान जी के बारह मंदिरों का निर्माण कराया।

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    इसके कागजी प्रमाण हालांकि नहीं हैं किन्तु जनमानस की श्रद्धा इन मंदिरों को आज भी समर्पित है। इनमें से ग्यारह मंदिर तो आंखों के सामने हैं, बारहवें को लेकर कुछ भ्रम है। विशेष बात यह कि इन प्रतिमाओं में सात हनुमान जी के बालरूप की हैं। मंदिरों के साथ अखाड़ों को जोड़कर समाज के शौर्य के प्रकटीकरण का जतन भी किया गया है।

    श्रृंखला इस प्रकार से है- राजमंदिर के बाल हनुमान - पक्के महाल में बसे राजमंदिर क्षेत्र में बूंदी राजघराने के परकोटा भवन पर गोस्वामीजी ने हनुमान मंदिर की स्थापना की। यह मूर्ति भी बालरूप, दक्षिणमुखी व एक विशाल वृक्ष के नीचे स्थापित है यहां से लगा अखाड़ा आज भी मनसायन है।

    प्रभु संकटमोचन नाम तिहारो - बाबा विश्वनाथ दरबार के बाद काशी में सर्वाधिक पूजित मंदिर संकटमोचन जी का ही है। यह हनुमान मंदिरों में सबसे विशाल और दर्शनीय है। कुछ दशकों पहले तक यह मंदिर घने जंगलों से घिरा था। कालक्षरण के बाद भी परिसर की हरियाली अब भी दर्शनीय है। हर मंगल और शनिवार को मंदिर में मेले का दृश्य होता है। विग्रह के ठीक सामने राम जानकी का मंदिर दर्शनीय है।

    अस्सी भदैनी की हनुमान गुफा-

    वरुणा संगम के निकट गंगा के तट पर यायावर तुलसी के जीवन को स्थाई ठौर मिला। यहां गोस्वामीजी ने दक्षिणमुखी प्रतिमा की स्थापना की और जीवनपर्यन्त यहीं बैठकर हनुमान जी के चरणों को ध्याते रहे।

    मृत्युंजय महादेव में दो स्थापनाएं-

    दारानगर क्षेत्र के प्रसिद्ध महामृत्युंजय मंदिर में गोस्वामीजी ने दो प्रतिमाओं की स्थापना की। एक प्रतिमा मंदिर के मुख्य प्रांगण में दक्षिणमुखी बालरूप है। ग्रहादि दोषों से निवृत्ति के लिए मंदिर के पूर्व पीपल वृक्ष के नीचे भी श्रद्धालुओं के आग्रह पर गोस्वामीजी ने एक और प्रतिमा की स्थापना की। आज भी दोनों प्रतिमाएं जागृत और पूजित हैं।

    हनुमान फाटक के लघु हनुमान-क्षेत्र के युवकों को जागृत करने के उद्देश्य से गोस्वामी जी ने हनुमान फाटक में भी लघु हनुमान (लगभग एक फीट) की प्रतिमा स्थापित की। लोग बताते हैं कि गोस्वामी जी ने यहीं के सुमंतेश्वर महादेव मंदिर में प्रवास भी किया और किष्किंधा के कुछ अध्यायों की रचना भी की।

    नीचीबाग के संकटदहन हनुमान-

    नीचीबाग क्षेत्र में गोस्वामीजी ने एक हनुमान मंदिर की स्थापना की। यहां हनुमान जी बालरूप में न होकर वीर भाव में हैं और उनकी मुद्रा अभयदाता की है। मूर्ति के पैरों तले राक्षस की प्रतिमा है जिसे श्रद्धालुजन नरकासुर बताते हैं। जनश्ऱतियों के अनुसार यहां भी पहले वन क्षेत्र था।

    कबीरचौरा के वीर हनुमान- जिस समय नगर में धर्म परिवर्तन का आतंक था उस समय गोस्वामी जी ने कबीरचौरा में भी हनुमान जी की वीर भाव वाली बड़ी प्रतिमा की स्थापना की।

    बारहवें मंदिर पर शोध जारी-हनुमान जी की गोस्वामी जी द्वारा स्थापित बारहवीं प्रतिमा को लेकर काफी मतमतांतर हैं। कोई इसका अस्तित्व गोपाल मंदिर में तो कोई मीरघाट पर बताता है। शोध के प्रयास अब भी जारी हैं।

    निरक्षरता से अभिशप्त श्रद्धालु भी रामकथा के अमृतपान से वंचित न रह जाएं इस निमित्त रची गई 200 साल से भी पुरानी चित्रमय रामायण की मूलप्रति ढूंढ़ ली गई है। किन्हीं कारणों से भक्तों के हाथ आने से रह गई यह चित्रमय रामायण अखाड़ा तुलसीदास के प्रयासों से अब इंद्रधनुषी रंगों से सजी पुस्तक के रूप में आ रही है। मंगलवार को तुलसी जयंती समारोह में यह रचना लोक मानस को समर्पित कर दी जाएगी।

    इस चित्रमय रामायण के अस्तित्व से अवगत होने के बाद संकटमोचन मंदिर के दिवंगत महंत वीरभद्र मिश्र ने इसकी खोज की जिम्मेदारी कनिष्ठ पुत्र डा. विजयनाथ मिश्र को सौंपी थी। वर्षो के प्रयास के बाद डा. मिश्र और उनके मित्र डा. उदय शंकर दुबे (पांड़ुलिपि विशेषज्ञ) ने आखिर इसे सोनारपुरा के एक गृहस्थ के यहां ढूंढ़ निकाला। लगभग दो शताब्दियों से पुराने एलबमों में सहेज कर रखी गईं मिनिएचर शैली की इन अनमोल तस्वीरों में बबूल के गोंद के साथ प्रयुक्त पेवड़ी, गेरू, रामरज आदि प्राकृतिक रंगों की चमक थोड़ी मद्धम जरूर पड़ी है मगर आकृतियों की स्पष्टता पर अंतर नहीं है। एलबमों में रामकथा के प्रसंग क्त्रमवार भी नहीं हैं किंतु पूरी रामकथा संग्रहित है। पात्रों के परिधान व आभूषणों का चित्रंकन इन चित्रों की काल गणना में तो सहायक है ही, यह भी तय करता है कि काशी के ही किसी अनाम चित्रकार ने यह सजीव राम कथा रची है। मसलन फुलवारी में बैठी जानकी की नाक को अलंकृत करती नथ जहां यह बताती है कि तस्वीरें सत्रहवीं-अठाहरवीं सदी की हैं (डा. दुबे के अनुसार इसके पूर्व काशी की आभूषण श्रृंखला मे नथ नहीं थी) वहीं श्रीराम-लक्ष्मण आदि पात्रों के पहिरावे में धोती की जगह घुटनों तक के कच्छे का प्रयोग स्पष्ट करता है कि चित्रों की पृष्ठभूमि में बनारस की जीवनशैली ही मुख्य बिंब है। काशी की प्राचीन रामलीलाओं में आज भी इसी शैली के परिधान चलन में हैं।

    उनका भी वंदन- सोनारपुरा के उस मुस्लिम परिवार का जज्बा भी काबिले बयान है, जिसने वषरे तक हिंदू भाइयों की अमानत को थाती की तरह सहेज कर रखा। परिवार के मुखिया खान साहब कहते हैं-'हमने यह संकलन पूरी तरह मुतमइन होने के बाद ही डा. मिश्र को सौंपा कि अब यह सही जगह जा रहा है। संकटमोचन मंदिर के महंत प्रो. विश्वंभरनाथ मिश्र बताते हैं, लोकार्पण समारोह में हमने खां साहब को बुलाया है।प्रह्लादघाट का प्रसिद्ध मंदिर1जनश्रुतियों के अनुसार यह क्षेत्र उन दिनों महामारी की चपेट में आ गया था। भयाक्त्रांत लोगों के मन में आत्मबल जगाने के उद्देश्य से तुलसीदास जी ने यहां दक्षिणमुखी हनुमान जी की स्थापना की। लोग बताते हैं कि यहां पर गोसाईं जी का अखाड़ा भी था जिसका अस्तित्व अब नहीं मिलता। काशी में यह मंदिर मनसापूरण हनुमान जी के नाम से आज भी पूजित है।

    कर्णघंटा के कोढि़या हनुमान- कर्णघंटा क्षेत्र का काशी में विशेष महत्व था। उन दिनों यह नगर का वन क्षेत्र था। बताते हैं कि शांति और एकांत की तलाश में गोस्वामी जी ने इस क्षेत्र में भी एक मंदिर की स्थापना की और कुछ दिनों तक यहां प्रवास किया। यह प्रतिमा दक्षिणमुखी है। बालरूप हनुमान की इस मूर्ति का आकार लगभग डेढ़ फीट है लेकिन प्रबंधन न होने की वजह से मंदिर अत्यंत जर्जर स्थिति में है। आम लोगों के बीच इसकी पहचान कोढि़या हनुमान जी के रूप में है।

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