बूढ़ाकेदार मंदिर में नाथ जाति के राजपूत होते हैं मुख्य पुजारी
कदम-कदम पर मठ व मंदिर और उनमें गूंजते घंटे-घड़ियालों की तन-मन को आल्हादित करने वाली समधुर लहरियां। इसीलिए उत्तराखंड को देवभूमि का दर्जा मिला है। देवभूमि के इन्हीं मठ-मंदिरों में शामिल है बालगंगा व धर्मगंगा नदी के मध्य अवस्थित बूढ़ा केदार। यह मंदिर धार्मिक और पौराणिक दृष्टि से महत्वपूर्ण तो है ही, यह कई विश्
पौराणिक मान्यता
कदम-कदम पर मठ व मंदिर और उनमें गूंजते घंटे-घड़ियालों की तन-मन को आल्हादित करने वाली समधुर लहरियां। इसीलिए उत्तराखंड को देवभूमि का दर्जा मिला है। देवभूमि के इन्हीं मठ-मंदिरों में शामिल है बालगंगा व धर्मगंगा नदी के मध्य अवस्थित बूढ़ा केदार। यह मंदिर धार्मिक और पौराणिक दृष्टि से महत्वपूर्ण तो है ही, यह कई विशेषताएं भी समेटे है। मंदिर में पुजारी ब्राह्मण नहीं नाथ जाति के राजपूत होते हैं। नाथ जाति के सिर्फ वही लोग ही पूजा कर सकते हैं, जिनके कान छिदे हों।
पौराणिक एवं धार्मिक महत्व
जब सड़क सुविधा नहीं थी, तब केदारनाथ धाम पहुंचने का यही पैदल मार्ग था। केदारनाथ की यात्र से पहले बूढ़ा केदार के दर्शन जरूरी थे। पुराणों में जिक्त्र है कि गोत्र हत्या से मुक्ति पाने को पांडव जब इस मार्ग से स्वर्गारोहण पर जा रहे थे तो बूढ़ा केदार में शिव ने उन्हें बूढ़े व्यक्ति के रूप में दर्शन दिए। उनसे आशीर्वाद लेकर ही पांडव स्वर्गारोहण के लिए निकले। शिव के बूढ़े रूप में दर्शन देने के कारण ही इस स्थान का नाम बूढ़ा केदार पड़ा। मंदिर के भीतर एक विशाल शिला है, जबकि कुछ ही फासले पर बाल गंगा व धर्म गंगा नदियों का संगम है। संगम में स्नान करना पुण्यदायी माना गया है। संगम में आरती भी होती है।
यहां ब्राह्मण नहीं करते पूजा
टिहरी जिले के भिलंगना ब्लॉक में स्थित बूढ़ाकेदार कई विशेषताएं समेटे है। मंदिर की खासियत यह है कि यहां ब्राह्मण नहीं, बल्कि नाथ जाति के राजपूत मुख्य पुजारी होते हैं। ब्राह्मण जाति के लोग मंदिर में पूजा नहीं करते। मान्यता है कि 13वीं शताब्दी में गोरखनाथ संप्रदाय के पुजारी यहां पूजा के लिए आए और तब से यह परंपरा चली आ रही है। नाथ जाति के भी सिर्फ वही लोग ही पूजा कर सकते हैं, जिनके कान छिदे हों। यही नहीं, पुजारियों की मृत्यु के बाद उन्हें मंदिर परिसर में ही भू समाधि दी जाती है। शिवरात्रि के दिन मंदिर परिसर श्रद्धालुओं की अच्छी भीड़ जमा रहती है। बूढ़ाकेदार मंदिरमंदिर में पूजा का अधिकार नाथ जाति के लोगों को मिला है। यहां भगवान शिव ने पांडवों को व़ृद्ध के रूप में दर्शन दिए थे और यह स्थल बूढ़ाकेदार के रूप में प्रसिद्ध हुआ। 13वीं शताब्दी में गोरखनाथ संप्रदाय के लोग यहां पर मुख्य पुजारी के रुप में आए।
यात्री सुविधाएं
पूर्व में यहां पर धर्मशालाएं बनाई गई थी, जो अब जीर्ण-शीर्ण हो गई हैं। यात्रियों को यहां होटलों में ही ठहरना पड़ता है।
कैसे पहुंचे- वायु मार्ग- देहरादून स्थित जौलीग्रांट हवाई अड्डा।
रेल मार्ग- ऋषिकेश व देहरादून तक उपलब्ध।
सड़क मार्ग-ऋषिकेश व नई टिहरी से बस सुविधा, घनसाली से यहां के लिए जीप की सुविधा भी उपलब्ध है।
गर्म कपड़े जरूरी
समुद्रतल से 4400 फुट की ऊंचाई पर स्थित बूढ़ाकेदार में वर्षभर हल्की सर्दी का मौसम रहता है। इसलिए यहां पर आने के लिए गर्म कपड़े लाने जरुरी हैं।
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