मोहे संविधान में मान देऔ, मैं भाषान में लाड़िली ब्रज
मैया मोरी मैं नहिं माखन खायौ। भोर भये गइयन के पांछे, मधुवन मोहि पठायौ।। जुबां पर ये बोल आते ही ब्रज रस की मिठास दिमाग पर छाने लगती है। सूरदास और रसखान ...और पढ़ें

मथुरा। मैया मोरी मैं नहिं माखन खायौ। भोर भये गइयन के पांछे, मधुवन मोहि पठायौ।। जुबां पर ये बोल आते ही ब्रज रस की मिठास दिमाग पर छाने लगती है। सूरदास और रसखान के ऐसे कालजयी साहित्य ने ही तो ब्रज भाषा को साहित्य जगत के महाशिखर पर आरूढ़ किया। वक्त के साथ इस परंपरा को दूसरे साहित्यकार सींचते रहे। इसके बाद भी ब्रज धरा को गुरुवार को दिल्ली के रविंद्र भवन का दृश्य एक टीस दे गया। वहां 24 भारतीय भाषाओं को साहित्य अकादमी पुरस्कार घोषित किया जा रहा था लेकिन अपनी ब्रज भाषा कहीं बेगाने आसमां में थी।
ब्रजभाषा की ऐसी हालत क्यों हुई इस पर दैनिक जागरण ने नजर डाली तो अपनों का बेगानापन ज्यादा नजर आया। उप्र सरकार की ओर से ब्रज भाषा को उसका हक दिलाने के प्रयास न पहले हुए न अब हो रहे हैं। राजस्थान ने ब्रजभाषा के समृद्ध इतिहास को देखते हुए भरतपुर में साहित्य अकादमी बनाई, लेकिन उत्तर प्रदेश में ऐसी कोई संस्था नहीं है। यह स्थिति तब है, जब मथुरा से जुड़े ब्रजभाषा के दो साहित्यकार पद्मश्री से सम्मानित हो चुके हैं। दर्जनों साहित्यकारों की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ब्रजभाषा के साथ पहले से भी पराये जैसा व्यवहार हुआ है। स्वतंत्रता के 66 साल बाद भी मधुर रस से भरी इस भाषा को संविधान की 18वीं अनुसूची में शामिल नहीं किया गया। यूपी सरकार इसके लिए कोई प्रयास भी नहीं कर रही। यदि ऐसा हो जाता तो यहां ब्रज साहित्य अकादमी खुल जाती, जो ब्रज भाषा के साहित्य को प्रकाशित करती। ब्रजभाषा के प्रख्यात कवि प्रेमी मथुरिया कहते हैं कि स्थानीय मीडिया ने भी कभी ब्रजभाषा को प्राथमिकता नहीं दी। वह कहते हैं कि सामूहिक प्रयासों के अभाव में ब्रजभाषा की दुर्दशा हो गई है।
ब्रज में दब जाती है आवाज- वैसे ब्रजभाषा के साहित्यकारों के साथ भी अलग विडंबना रही है। वह यदि ब्रज में रहें तो उनकी आवाज भी छिप जाती है। इसकी गवाही इस बात से मिलती है कि ब्रजभाषा के उन्हीं साहित्यकारों को यश-सम्मान मिल सका, जो मथुरा छोड़ गए। उप्र हिंदी संस्थान ने सालों पहले साहित्यकार राधेश्याम अग्रवाल को ब्रजभाषा गद्य के लिए सम्मानित किया था।
साहित्यकार बरसाने लाल चतुर्वेदी और गोपाल प्रसाद व्यास ने जब दिल्ली जाकर डंका बजाया तभी राष्ट्रपति ने उन्हें पदमश्री से सम्मानित किया। जिन्होंने दी ब्रजभाषा को गति: साहित्यकार राम नारायण अग्रवाल ने ब्रज कला केंद्र संस्थान की नींव रखी। उनके समय में कैलाश कृष्ण, देवी द्विज, राम लला, गोविंद चतुर्वेदी, यमुना प्रसाद प्रीतम, विष्णु दत्त शर्मा, बरसाने लाल चतुर्वेदी और गोपाल प्रसाद व्यास जैसे साहित्यकारों ने काफी काव्य व गद्य लिखा। प्रख्यात साहित्यकार अमृत लाल नागर का सूरदास पर ब्रजभाषा पर लिखा उपन्यास खंजन नयन तो कालजयी कृति मानी जाती है। अब जो कर रहे सेवा: मथुरा में रहकर ब्रजभाषा की सेवा करने वाले गिने-चुने ही हैं। इनमें राधा गोविंद पाठक, देवकी नंदन कुम्हेरिया, मोहन लाल प्रेमी उर्फ प्रेमी मथुरिया प्रमुख हैं। मथुरा से बाहर जाकर जिन्होंने ब्रजभाषा में यश कमाया है, उनमें कवि डा. विष्णु विराट (बड़ौदा), राजेंद्र रंजन (हरियाणा), महेंद्र नेह (कोटा) प्रमुख हैं।
मुहिम ने जब तोड़ा दम-साहित्यकारों ने लगभग ढाई दशक पहले ब्रजभाषा अकादमी के लिए मुहिम चलाई। इस पर पूर्व में तत्कालीन अतिरिक्त न्यायाधीश व कवि चंद्रभान सुकुमार, साहित्यकार दाऊदयाल गुप्त व डा. नटवर नागर ने ब्रजभाषा को संविधान की 18वीं अनुसूची में शामिल कराने की मुहिम शुरू की, लेकिन राजनैतिक समर्थन न मिलने से यह दम तोड़ गई।
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