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    चाहते तो एक चुटकी में खत्म हो जाता महाभारत का युद्ध, फिर क्यों नहीं उठाया श्री कृष्ण ने अस्त्र?

    By Shantanoo MishraEdited By: Shantanoo Mishra
    Updated: Mon, 15 May 2023 05:12 PM (IST)

    Mahabharat महाभारत के विकराल युद्ध में श्री कृष्ण धनुर्धर अर्जुन के सारथि के रूप में महाभारत का हिस्सा बने हुए थे। अगर श्री कृष्ण चाहते तो महाभारत का युद्ध एक चुटकी में खत्म हो जाता। जानते हैं क्यों उन्होंने नहीं उठाया अस्त्र?

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    Mahabharat: महाभारत के युद्ध श्री कृष्ण ने क्यों नहीं उठाया अस्त्र?

    नई दिल्ली, अध्यात्म डेस्क। Mahabharat: कुरुक्षेत्र की रणभूमि में हुए महाभारत के युद्ध से हम सभी परिचित हैं। यहां तक आज भी हम भगवान श्री कृष्ण द्वारा दिए गए गीता के उपदेश का पाठन व श्रवण करते हैं। जहां एक तरफ इस युद्ध में कौरव और पांडव आमने-सामने थे। पांडवों के अधिकांश सगे-संबंधी भी कौरवों की तरफ से युद्ध कर रहे थे। वहीं पांडवों की तरफ से भगवान श्री कृष्ण ने युद्ध में अर्जुन के सारथि और मार्गदर्शक के रूप में भाग लिया था। इस युद्ध में कई ऐसे क्षण आए, जहां पांडव पक्ष कमजोर पड़ता हुआ दिख रहा था, लेकिन श्री कृष्ण ने एक बार भी अस्त्र नहीं उठाया। धर्माचार्य बताते हैं कि यदि भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत की युद्धभूमि में अस्त्र उठा लिया होता तो युद्ध कुछ ही क्षणों में समाप्त हो जाती। फिर भगवान श्री कृष्ण ने ऐसा क्यों नहीं किया?

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    पूर्वजन्म में छिपा है इसका रहस्य

    महाभारत के युद्ध में एक क्षण ऐसा भी आया था जब भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपने कर्तव्यों का बोध कराने के लिए रथ का पहिया उठा लिया था। लेकिन अर्जुन के आग्रह पर उन्होंने वह पहिया नीचे रख दिया। युद्ध में अस्त्र न उठाने के रहस्य के पीछे का कारण जानने के लिए सर्वप्रथम हमें श्री कृष्ण और अर्जुन के पूर्वजन्म की कथा पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। किंवदंतियों के अनुसार, श्री कृष्ण पूर्व जन्म में नारायण थे और अर्जुन नर। दोनों भगवान विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए थे, जिन्होंने युद्ध में दम्बोद्भव को परास्त किया था।

    पौराणिक कथा के अनुसार, दम्बोद्भव ने सूर्यदेव की तपस्या कर उनसे 1000 कवच का वरदान मांगा, साथ ही यह शर्त भी रखी कि इस कवच को 1000 वर्षों की तपस्या के बाद ही कोई तोड़ सकता था। यह वरदान पाकर उसने देवलोक और धरतीलोक पर हाहाकार मचा दिया। देवताओं द्वारा की गई विनती पर नर और नारायण ने दैत्य दम्बोद्भव को युद्ध की चुनौती दी। सर्वप्रथम नारायण ने एक हजार वर्षों तक युद्ध किया और एक कवच तोड़ दिया। लेकिन युद्ध के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। दैवीय मंत्रों की सहायता से नर ने नारायण को पुनः जीवित किया और फिर दम्बोद्भव को युद्ध के लिए ललकारा। हजार वर्ष तक चले युद्ध के बाद उसका दूसरा कवच भी टूट गया, साथ नारायण ने अपना 1 हजार वर्ष का तप पूरा कर लिया।

    ऐसा करते हुए दम्बोद्भव के पास केवल अंतिम कवच ही बच गया और वह डर कर सूर्यदेव की शरण में छिप गया। उस समय सूर्य देव ने अपनी शरण में आए भक्त को तो बचा लिया, लेकिन नर और नारायण ने उन्हें इसके लिए श्राप दिया कि यह भक्त द्वापर युग में आपके अंश से उत्पन्न होगा और तब आपको अपने पुत्र के मृत्यु की पीड़ा को भोगना पड़ेगा। जो और कोई नहीं दानवीर कर्ण था। कर्ण का बल और तेज सूर्य के समान उदयमान था और ऐसा माना जाता है कि महाभारत के युद्ध में यदि वह जीवित रहता तो पांडव यह युद्ध नहीं जीत पाते। इसी वजह से श्री कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध के लिए आगे किया और स्वयं सारथि के रूप में मार्गदर्शन किया। यह इस बात को भी दर्शाता है कि धर्म या एक योग्य गुरु केवल उचित मार्ग दिखा सकते हैं। उस मार्ग पर चलना या न चलना व्यक्ति पर निर्भर करता है।

    डिसक्लेमर- इस लेख में निहित किसी भी जानकारी/सामग्री/गणना की सटीकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। विभिन्न माध्यमों/ज्योतिषियों/पंचांग/प्रवचनों/मान्यताओं/धर्मग्रंथों से संग्रहित कर ये जानकारियां आप तक पहुंचाई गई हैं। हमारा उद्देश्य महज सूचना पहुंचाना है, इसके उपयोगकर्ता इसे महज सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त, इसके किसी भी उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं उपयोगकर्ता की ही रहेगी।