संन्यास के लिए घर छोड़ना जरूरी नहीं
भले ही आप शादीशुदा क्यों न हों, फिर भी आप संन्यास ले सकेंगे, क्योंकि तब आप कभी जड़ न होने की प्रतिज्ञा ले चुके होंगे।
- सदगुरु जग्गी वासुदेव
त्याग एक ऐसा शब्द है, जिसका हमेशा गलत मतलब निकाला गया है। लोगों को लगता है कि त्याग का मतलब 'सब कुछ छोड़ देना' होता है। जबकि असलियत में ऐसा नहीं है। यहां त्याग का भाव कुछ उसी तरह से है, जैसे जन्म लेने के लिए शिशु को अपनी मां की कोख का त्याग करना पड़ता है।
समाज में आज संन्यास शब्द को लेकर कई तरह की नकारात्मकता दिखाई देती है, इसके पीछे वजह है कि संन्यासियों ने अपने कर्म से समाज के सामने बहुत ही गलत और खराब तस्वीर पेश की है। हालांकि सारे संन्यासी खराब नहीं होते, उनमें से कुछ बहुत अच्छे भी हैं, लेकिन बहुत से पाखंडी अपने जीवनयापन के लिए इसे पेशा बना लेते हैं। इसीलिए संन्यासियों के बारे में लोगों की ऐसी धारणा बनी है।
संन्यास के लिए आपको दुनिया को छोड़ना जरूरी नहीं है, लेकिन अध्यात्म के मार्ग पर चलना जरूरी है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि अगर आप आध्यात्मिक नहीं हैं, तो समाज मैं फैली अव्यवस्था, छल-कपट, अन्याय, काम के प्रति लापरवाही को देख कर आपमें नाराजगी और गुस्सा होना स्वाभाविक है।
जीवन में या तो आप उदासीन हो जाएं या फिर आध्यात्मिक, वरना तो आप सिर्फ क्रोधित ही होते रहेंगे। संवेदनशील इंसान के लिए यह दुनिया तकलीफदेह हो जाती है। अगर आप पूरी तरह से बेखबर हैं, तो ठीक है। अगर आपको ज्ञानप्राप्ति हो चुकी है, तब यह बहुत ही सुंदर बात है। लेकिन इन दोनों स्थितियों के बीच में होना कष्टकर है। इसलिए आध्यात्मिक प्रक्रिया बहुत जरूरी है। तो सवाल है कि इसके लिए क्या करना होगा?
आध्यात्मिक प्रक्रिया हमेशा त्याग से जुड़ी होती है। यहां मैं एक बात कहना चाहूंगा कि त्याग एक ऐसा शब्द है, जिसका हमेशा गलत मतलब निकाला गया है। लोगों को लगता है कि त्याग का मतलब 'सब कुछ छोड़ देना' होता है।
जबकि असलियत में ऐसा नहीं है। यहां त्याग का भाव कुछ उसी तरह से है, जैसे जन्म लेने के लिए शिशु को अपनी मां की कोख का त्याग करना पड़ता है, फिर बच्चा बनने के लिए अपनी शैशवावस्था छोड़नी पड़ती है, जवानी के लिए बचपने को छोड़ना होता है, प्रौढ़ावस्था के लिए जवानी को और बुढ़ापे के लिए प्रौढ़ावस्था को छोड़ना होता है।
फिर मरने के लिए आपको बुढ़ापे को छोड़ना होता है। करना तो ये आपको हर हालत में पड़ेगा। अगर आप पूरी गरिमा और चेतना के साथ ऐसा करते हैं तो यह त्याग कहलाता है, वरना हम इसे उलझन ही कहेंगे। अगर आप जागरूकता में चीजों को छोड़ रहे हैं, तो उसमें छोटी चीजें आपसे छूटेंगी और अपेक्षाकृत बड़ी चीजें आपके जीवन में आएंगी। तो त्याग का मतलब है कि आप छोटी व तुच्छ चीजों को छोड़कर बड़ी चीजों की तरफ बढ़ते जाते हैं और यह सिलसिला जारी रहता है।
यही त्याग है, यानी आप किसी चीज में उलझते नहीं, उसमें अटके नहीं रह जाते। अगर कोई इंसान ठीक तरह की जगह पर और ठीक तरीके से रहता है, तो वह आसानी से रूपांतरित हो सकता है। ऐसे में मुझे उस अंगुलिमाल की याद आती है, जो लूटे गए लोगों की उंगली काट कर उन्हें गले में लटका लेता था। ऐसे इंसान के जीवन में भी रूपांतरण हुआ और वह साधु बन गया। आज हमें जेल में बंद ऐसे तमाम लोगों की मिसालें मिल जाएंगी, जो सही मायनों में अपने तरीके से एक सच्चे साधु बन चुके हैं।
एक बात तो मैं पक्के तौर पर कह सकता हूं कि कैसा भी इंसान हो, अगर आप उसे ठीक तरह के माहौल, ठीक तरह के उर्जा क्षेत्र और ठीक तरह के प्रभ्ााव में रखेंगे, तो वह शानदार और खूबसूरत इंसान के रूप में उभरेगा।
संन्यास का यह मतलब नहीं है कि आपको घर छोड़कर कहीं दूर जाना होगा। संन्याय का मतलब है, आप हर वक्त अपने अंदरुनी विकास की चाहत में डूबे रहते हैं। जब आप विकास करते हैं, तो इस प्रक्रिया में हर वक्त आप कुछ न कुछ चीज छोड़ते या त्यागते हैं। सिर्फ वे लोग, जो ठहर चुके हैं या जड़ हो चुके हैं, बिना त्याग के रह सकते हैं। जो लोग विकास कर रहे हैं, आगे बढ़ रहे हैं, वो तो हरदम कुछ न कुछ छोड़ रहे हैं। अगर आप किसी चीज का त्याग नहीं करेंगे तो आप आगे नहीं बढ़ेंगे। यही जीवन की प्रकृति है।
लंबे समय से मेरे दिमाग में घूम रहा है कि कैसे संन्यास को बड़े पैमाने पर लोगों के सामने लाया जाए। ईशा में जल्दी ही सक्रिय-संन्यास के कार्यक्रम की शुरुआत की जाएगी, जिसमें लोग कई तरीकों से हिस्सा ले सकेंगे। आप चाहें किसी भी जगह और अवस्था में हों, आप संन्यासी बन सकेंगे। भले ही आप शादीशुदा क्यों न हों, फिर भी आप संन्यास ले सकेंगे, क्योंकि तब आप कभी जड़ न होने की प्रतिज्ञा ले चुके होंगे।
आपके जीवन में हर पल कुछ नया घटित होता है। इसके लिए कुछ पुरानी चीजों का छूटना जरूरी है। आपको कुछ पुरानी चीजों का त्याग करना होगा, जिससे आपके जीवन में कुछ नया आ सके। अगर हर पल ऐसा न हो सके तो कम से कम हर दिन तो ऐसा अवश्य होना ही चाहिए, क्योंकि जब तक आप खुद को किसी बड़े उद्देश्य में नहीं डुबोएंगे, तब तक जीवन में कृपा से वंचित रहेंगे।
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