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    सावन माह की समाप्तिः जानिए शिव के सभी रूपों के बारे में

    भगवान शिव सृष्टि का संहार करते हैं। वे देखने में तो दुखरूप हैं, पर वास्तव में संसार को मिटा कर परमात्मा में एकीभाव कराना उनका सुखरूप है। इसीलिए भगवान शिव का बाहरी शृंगार तमोगुणी हो

    By Abhishek Pratap SinghEdited By: Updated: Thu, 18 Aug 2016 03:34 PM (IST)

    सारे विश्व में वैष्णव, शैव, शाक्त, सौर, गाणपत्य संप्रदाय देखने में आते हैं। इनमें शैव अधिक हैं, क्योंकि पंच देवों में शिव, शक्ति, गणेश- ये तीन तो भगवान शिव के परिवार में से ही हैं। शिव पुराण के अनुसार भगवान विष्णु और ब्रह्मा भी देवाधिदेव शिव के रूप हैं।

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    पुराणकारों के अनुसार संसार में सर्वाधिक भक्त भगवान शिव के ही हैं; क्योंकि असुर भी शिवजी की उपासना करते हैं। यहां तक कि भूत-प्रेतादि भी शिवजी के परिवार माने जाते हैं अर्थात् शिवजी की उपासना में सभी का स्थान है। क्यों न हो! भगवान शिव कल्याणकारी जो ठहरे! यह चराचर-स्थावर-जंगम जगत जो भी देखने में आता है, वह सारा शिव का ही रूप है-
    ‘अन्तस्तमो बहि:सत्त्वस्त्रिजगत्पालको हरि:।अन्त:सत्त्वस्तमोबाह्यस्त्रिजगल्लयकृद्धर:।।अन्तर्बहीरजश्चैव त्रिजगत्सृष्टिकृद्विधि:। एवं गुणास्त्रिदेवेषु गुणभिन्न: शिव: स्मृत:।।’

    अर्थात् तीनों लोकों का पालन करने वाले भगवान हरि भीतर से तमोगुणी हैं और बाहर से सतोगुणी। भगवान ब्रह्मदेव, जो तीनों लोकों को उत्पन्न करते हैं, भीतर और बाहर उभय रूप में रजोगुणी हैं और भगवान परब्रह्म शिव तीनों गुणों से परे हैं।

    इसका रहस्य यह है कि सुख का रूप सतोगुण है, दुख का रूप तमोगुण और क्रिया का रूप रजोगुण है। भगवान विष्णु सृष्टि का पालन करते हैं, इसलिए देखने में तो सृष्टि सुखरूप प्रतीत होती है, परंतु भीतर से अर्थात् वास्तव में दुखरूप होने से विष्णु भगवान का कार्य बाहर से सतोगुणी होने पर भी तत्त्वत: तमोगुणी ही है। इसलिए भगवान विष्णु के वस्त्राभूषण सुंदर और सात्विक होने पर भी श्यामवर्ण हैं।

    भगवान शिव सृष्टि का संहार करते हैं। वे देखने में तो दुखरूप हैं, पर वास्तव में संसार को मिटा कर परमात्मा में एकीभाव कराना उनका सुखरूप है। इसीलिए भगवान शिव का बाहरी शृंगार तमोगुणी होने पर भी स्वरूप सतोगुणी है और उनका शीघ्र प्रसन्न होना भी, जिसके कारण वे आशुतोष कहलाते हैं, सतोगुण का ही स्वभाव है।

    भगवान ब्रह्मदेव सदा सृष्टि का निर्माण करते हैं, इसलिए वे रक्तवर्ण हैं, क्योंकि क्रियात्मक स्वरूप को शास्त्रों ने रक्तवर्ण ही बतलाया है। अत: शिवजी की उपासना के अंतर्गत भगवान ब्रह्मा एवं विष्णु की उपासना स्वत: आ जाती है। शिवपुराण में भगवान शिव के परात्पर निर्गुण स्वरूप को ‘सदाशिव’, सगुण स्वरूप को ‘महेश्वर’, विश्व का सृजन करने वाले स्वरूप को ‘ब्रह्मा’, पालन करने वाले स्वरूप को ‘विष्णु’ और संहार करने वाले स्वरूप को ‘रुद्र’ कहा गया है। रुद्र का दूसरा अर्थ यह भी है कि जो सम्पूर्ण दुखों से मुक्त करा दे- ‘रुजं दुखं द्रावयतीति रुद्र:।’

    समुद्र-मंथन में प्रयासरत देवताओं और असुरों ने अमृत की अभिलाषा से जो अथक परिश्रम किया, उसमें दैवयोग से अमृत के पूर्व हलाहल विष निकल आया। परिणामस्वरूप उस विष ने देवताओं और असुरों को ही नहीं, बल्कि समस्त सृष्टि को ही भस्म करना प्रारंभ कर दिया। समस्त ब्रह्मांड त्राहि-त्राहि कर क्रंदन करने लगा। भगवान शंकर ने समस्त जीवों के त्राण के लिए भयंकर विष को लोगों के देखते-देखते अपने कंठ में धारण कर लिया।

    गणपति-वाहन-मूषक और शिव-भूषण सर्प बैरी होने पर भी समन्वय शक्ति से साथ-साथ रहते हैं। शिव-भूषण सर्प और सेनापति-वाहन मयूर का भी बैर, नीलकंठ के विष और चंद्रमौलि के अमृत में भी बैर, भवानी-वाहन सिंह और शिव-वाहन बैल में भी बैर, काम को भस्म करके भी स्त्री रखने में परस्पर विरोध, शिव के तीसरे नेत्र में प्रलय की आग और सिर निरंतर धारामयी गंगा से ठंडा, यह भी परस्पर विरोध, ऐसे दक्ष-जामाता राजनीतिज्ञ होने पर भी भोले-भाले। परंतु इस सहज परस्पर विरुद्धता में भी नित्य सहज समन्वय। यह देवाधिदेव महादेव की समन्वय शक्ति का ही परिचायक है।

    ऐसे भगवान सदाशिव के जिस संहारक स्वरूप को रुद्र कहा गया है, उसकी उपाधियां अनंत हैं। एकादश रुद्रों- शम्भु, पिनाकी, गिरीश, स्थाणु, भर्ग, सदाशिव, शिव, हर, शर्व, कपाली तथा भव-की कथाएं न केवल महाभारत व पुराणादि में हैं, बल्कि उनका उल्लेख ऋग्वेदादि में भी है।