यदि प्रेम हमारे जीवन में ना हो तो?
जिन बच्चों को अपनी मां का प्यार एवं परिवार से स्नेह प्राप्त हुआ होता है, वे बच्चे जीवन के हर क्षेत्र में उत्कृष्टता प्राप्त करते हैं, वहीं दूसरी ओर जो किन्ही कारणवश अपनी मां का प्यार प्राप्त नहीं कर पाते हैं, ऐसे बच्चे आमतौर पर अंतर्मुखी, भयभीत और कमजोर आत्मविश्वास
जिन बच्चों को अपनी मां का प्यार एवं परिवार से स्नेह प्राप्त हुआ होता है, वे बच्चे जीवन के हर क्षेत्र में उत्कृष्टता प्राप्त करते हैं, वहीं दूसरी ओर जो किन्ही कारणवश अपनी मां का प्यार प्राप्त नहीं कर पाते हैं, ऐसे बच्चे आमतौर पर अंतर्मुखी, भयभीत और कमजोर आत्मविश्वास वाले बनकर रह जाते हैं।
किसी कवि ने सच ही कहा है की 'जनम-मरन के बीच का सारथ सोई प्रवास, ढाई आखर प्रेम संग जिसने किया प्रयास'। अपने जन्म से लेके मृत्यु तक के महान सफर में 'प्रेम' ही एक ऐसी अनुभूति है, जो सदैव हमारे साथ हमारी सहयात्री बनकर रहती है।
यह सोचकर ही जैसे जी कांप उठता है की 'यदि प्रेम हमारे जीवन में ना हो तो? शायद फिर जीवन ही ना हो! इसीलिए तो माहत्मा गांधी ने कहा है की जहां प्रेम है, वहां जीवन है। प्रेम शद पवित्र, दिव्य और अलौकिक है। मानवीय संस्कृति को क्रियान्वित करने का आधार भी प्रेम ही है। प्रेम में त्याग और न्यौछावर की भावना अंतर्निहित है। दुखों से भरी इस दुनिया में सच्चे प्रेम की एक बूंद भी मरुस्थल में सागर की तरह है। इसलिए हमें प्रेम के सागर में रहना चाहिए। इससे ही जीवन सुखमय हो सकता है।
यह एक ज्ञात तथ्य है की जब एक बच्चा पैदा होता है, तब उसे अपनी माता का अविरत प्रेम एवं वात्सल्य प्राप्त होता है, जो उसकी परवरिश में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। जी हां! मनोवैज्ञानिकों द्वारा यह सिद्ध किया गया है की जिन बच्चों को अपनी मां का प्यार एवं परिवार से स्नेह और प्रोत्साहन प्राप्त हुआ होता है, वे बच्चे जीवन के हर क्षेत्र में उत्कृष्टता प्राप्त करते हैं, वहीं दूसरी ओर जो किन्ही कारणवश अपनी मां का प्यार प्राप्त नहीं कर पाते हैं, ऐसे बच्चे आमतौर पर अंतर्मुखी, भयभीत और कमजोर आत्मविश्वास वाले बनकर रह जाते हैं।
अत: इससे यह स्पष्ट होता है की प्रेम हमारे जीवन की वो मजबूत नीव है, जिसे बाल्यकाल से ही यदि ठीक तरह से निर्धारित नहीं किया गया तो हमारे जीवन की इमारत हर छोटे झटकों से हिलती रहेगी। प्रेम एक ऐसा मधुर अहसास है, जो अनेक भावनाओं का, रवैयों का मिश्रण है।
इसीलिए कहते हैं की प्रेम को अभिव्यक्त करने की सर्वोत्तम भाषा यदि कोई है तो वह मौन है, क्योंकि प्रेम मानव मन का वह भाव है, जो कहने-सुनने के लिए नहीं अपितु समझने के लिए होता है या उससे भी बढ़कर महसूस करने के लिए होता इसलिए प्रेम की परिभाषा शदों की सहायता से संभव ही नहीं है, क्योंकि सारे शदों के अर्थ जहां जाकर अर्थरहित हो जाते हैं, वहीं से प्रेम के बीज का प्रस्फुटन होता है।
प्रेम को शद रूपी मोतियों की सहायता से भावना की डोर में पिरोया तो जा सकता है किंतु उसकी व्याया नहीं की जा सकती है क्योंकि जिसे परिभाषित किया जा सकता है, जिसकी व्याख्या की जा सकती है, वह चीज तो एक निश्चित दायरे में सिमटकर रह जाती है, जबकि प्रेम तो सर्वत्र है। सच्चा प्यार केवल देने और देते रहने में ही विश्वास करता है। जहां प्यार है, वहां समर्पण है।
जहां समर्पण है, वहां अपनेपन की भावना है और जहां यह भावना रूपी उपजाऊ जमीन है, वहीं प्रेम का बीज अंकुरित होने की संभावना है। जिस प्रकार जीने के लिए हृदय की धड़कन जरूरी है, उसी तरह जीवन के लिए प्रेम आवश्यक है। तभी तो प्रेम केवल जोडऩे में विश्वास रखता है न कि तोडऩे में।
प्रेम को देखने-परखने के सबके नजरिए अलग हो सकते हैं, किंतु प्रेम केवल प्रेम ही है और प्रेम ही रहेगा क्योंकि अभिव्यक्ति का संपूर्ण कोष रिक्त हो जाने के बावजूद और अहसासों की पूर्णता पर पहुंचने के बाद भी प्रेम केवल प्रेम ही रहता है।
बिना भेदभाव के परमात्मा का प्रेम: प्रेम के अनेक रूप है. बचपन में माता-पिता, भाई-बहनों का प्यार, स्कूल-कॉलेज में दोस्तों का प्यार, दांपत्य जीवन में पति-पत्नी का प्यार. किन्तु परमात्मा का प्रेम कोई भेदभाव नहीं करता और न किसी को अस्वीकार करता हैं, बल्कि वह तो सबको गले लगाता है एवं सबको स्वीकार करता है।
वह इतना शक्तिशाली होता है, जो धीरे- धीरे हमारी आत्मा के भीतर भय, अकेलापन और दुरुख के निशानो को निकाल कर हमें पवित्र और दिव्य बना देता है.
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।