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    वही, महाभारत में व्याध-गीता के नाम से प्रसिद्ध है

    By Preeti jhaEdited By:
    Updated: Tue, 10 Jan 2017 03:59 PM (IST)

    इस कथा के आधार पर स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि कोई भी कार्य निंदित नहीं हो सकता है और न ही कोई भी कार्य अपवित्र हो सकता है।

    कर्मयोग के पथिक किसी भी प्रकार का कार्य छोटा या बड़ा नहीं होता है। लक्ष्य की प्राप्ति उन्हें ही होती है, जो कर्म-पथ पर अग्रसर रहते हैं। स्वामी विवेकानंद का चिंतन..

    एक तरुण संन्यासी किसी वन में गया।वहां उसने दीर्घ काल तक ध्यान-भजन तथा योगाभ्यास किया। अनेक वर्षो की कठिन तपस्या के बाद एक दिन जब वह एक वृक्ष के नीचे बैठा था, तो उसके ऊपर वृक्ष से कुछ सूखी पत्तियां आ गिरीं। उसने ऊपर निगाह उठाई, तो देखा कि एक कौआ और एक बगुला पेड़ पर लड़ रहे हैं। यह देखकर संन्यासी को बहुत क्रोध आया। उसने कहा, 'यह क्या! तुम्हारा इतना साहस कि तुम ये सूखी पत्तियां मेरे सिर पर फेंको?' इन शब्दों के साथ संन्यासी की क्रुद्ध आंखों से आग की एक ज्वाला-सी निकली, और वे बेचारी दोनों चिडि़यां उससे जलकर भस्म हो गईं। अपने में यह शक्ति देखकर वह संन्यासी बड़ा खुश हुआ; उसने सोचा, 'वाह, अब तो मैं दृष्टि मात्र से कौए-बगुले को भस्म कर सकता हूं।' कुछ समय बाद भिक्षा के लिए वह एक गांव गया। गांव में जाकर वह एक दरवाजे पर खड़ा हुआ और पुकारा, 'मां, कुछ भिक्षा मिले।' भीतर से आवाज आई, 'थोड़ा रुको, मेरे बेटे।' संन्यासी ने मन में सोचा, 'अरे दुष्टा, तेरा इतना साहस कि तू मुझसे प्रतीक्षा कराए! अब भी तू मेरी शक्ति नहीं जानती?' संन्यासी ऐसा सोच ही रहा था कि भीतर से फिर एक आवाज आई 'बेटा, अपने को इतना बड़ा मत समझ। यहां न तो कोई कौआ है और न बगुला।' यह सुनकर संन्यासी को बड़ा आश्चर्य हुआ।

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    बहुत देर तक खड़े रहने के बाद अंत में घर में से एक स्त्री निकली और उसे देखकर संन्यासी उसके चरणों पर गिर पड़ा और बोला, 'मां, तुम्हें यह सब कैसे मालूम हुआ?' स्त्री ने उत्तर दिया, 'बेटा, न तो मैं तुम्हारा योग जानती हूं और न तुम्हारी तपस्या। मैं तो एक साधारण स्त्री हूं। मैंने तुम्हें इसलिए थोड़ी देर रोका था कि मेरे पतिदेव बीमार हैं और मैं उनकी सेवा कर रही थी। यही मेरा कर्तव्य है। जीवन भर मैं इसी बात का यत्न करती रही हूं कि मैं अपना कर्तव्य पूर्ण रूप से निभाऊं। यही मेरा योगाभ्यास है। अपना कर्तव्य करने से ही मेरे दिव्य चक्षु खुल गए हैं, जिससे मैंने तुम्हारे विचारों को जान लिया। मुझे इस बात का भी पता चल गया कि तुमने वन में क्या किया है। यदि तुम्हें इससे भी कुछ उच्चतर तत्व जानने की इच्छा है, तो अमुक नगर के बाजार में जाओ, वहां तुम्हें एक व्याध मिलेगा। वह तुम्हें कुछ ऐसी बातें बतलाएगा, जिन्हें सुनकर तुम बड़े प्रसन्न होगे।' संन्यासी तुरंत उस शहर की ओर चला गया। जब वह शहर के नजदीक आया, तो उसने दूर से एक बड़े मोटे व्याध को बाजार में बैठकर अपना काम करते देखा। संन्यासी ने मन ही मन सोचा कि क्या इसी व्यक्ति से मुझे शिक्षा मिलेगी? इतने में व्याध ने संन्यासी की ओर देखा और कहा, 'महाराज, क्या उस स्त्री ने आपको मेरे पास भेजा है? कृपया बैठ जाइये। मैं जरा अपना काम समाप्त कर लूं।' इधर व्याध अपना काम लगातार करता रहा और जब वह अपना काम पूरा कर चुका, तो उसने अपने रुपये-पैसे समेटे और संन्यासी से घर चलने को कहा।घर आकर उसने अपने वृद्ध माता-पिता को स्नान कराया, उन्हें भोजन कराया और उन्हें प्रसन्न करने के लिए जो कुछ कर सकता था, किया। इसके बाद उसने संन्यासी से अपना प्रश्न करने को कहा।

    संन्यासी ने आत्मा तथा परमात्मा संबंधी कुछ प्रश्न किए और उनके उत्तर में व्याध ने उसे जो उपदेश दिया, वही महाभारत में 'व्याध-गीता' के नाम से प्रसिद्ध है। 'व्याध-गीता' में हमें वेदांतदर्शन की बहुत उच्च बातें मिलती हैं।इस कथा के आधार पर स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि कोई भी कार्य निंदित नहीं हो सकता है और न ही कोई भी कार्य अपवित्र हो सकता है। व्याध बचपन से ही इस व्यापार से जुड़ा हुआ है, लेकिन इसके प्रति उसकी आसक्ति नहीं है। वह न कोई योग जानता है और न ही कभी संन्यासी हुआ है। कर्तव्य के नाते वह अपने कार्य को उत्तम रूप से कर रहा है। सभी मनुष्यों को बिना किसी भेदभाव के अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए। कर्मफल में आसक्ति रखने वाले व्यक्ति ही अपने कर्तव्यों और उससे मिले परिणाम पर व्यथित होते रहते हैं। अनासक्त व्यक्ति के लिए सभी कर्तव्य एकसमान होते हैं। उनके लिए तो वे कर्तव्य स्वार्थपरता तथा इंद्रियपरायणता को नष्ट करके आत्मा को मुक्त कर देने के लिए शक्तिशाली साधन हैं। स्वयं स्वामी विवेकानंद कर्मयोग में विश्वास रखते थे। देश और समाज की भलाई को उन्होंने अपना कर्तव्य माना और जीवनपर्यत उसका निर्वाह करते रहे। 12 जनवरी को उनकी जयंती है। पुस्तक 'कर्मयोग' से साभार