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    आखिर हमें किस बात का अहंकार है?

    इसलिए, बेहतर होगा कि हम अहंकाररूपी इस बीमारी को परमात्म कृपा का टिका लगाकर सदा के लिए मुक्ति प्राप्त करें, अन्यथा यह ऐसी खतरनाकबीमारी हैं जो हमारे जीवन को संपूर्णत: उजाड़ सकती है।

    By Preeti jhaEdited By: Updated: Mon, 07 Nov 2016 12:43 PM (IST)

    हमें बचपन से ही यह सिखाया जाता हैं कि 'मैं-मैं' की बकरी नहीं बनना क्योंकि जो भी अहंकार के इस मैं-मैं में फंसते हैं, उनका जीवन अंतत:नरक समान बन ही जाता है। आखिर क्या है ये अहंकार, जो नुकसानदायक होते हुए भी हम उसे छोडऩे को तैयार नहीं होते?

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    गीता के तीसरे अध्याय में कहा गया है हमारे सभी कर्म वास्तव मे प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, किन्तु जो अज्ञानी होते हैं व जिनका अन्त:करण अहंकार से मोहित है, वे समझते हैं की कर्म उन्होंने ही किया, अर्थात मैं करताहूं यह अहंकार रख कर वे स्वयं को अनेक प्रकार के बंधनों में बांध लेते हैं।

    इसलिए ही हमें बचपन से ही यह सिखाया जाता हैं कि मैं-मैं की बकरी नहीं बनना क्योंकि जो भी अहंकार के इस मैं-मैं में फंसते हैं, उनका जीवन अंतत:नरक समान बन ही जाता है. आखिर क्या है येअहंकार, जो नुकसानदायक होते हुए भी हमउसे छोडऩे को तैयार नहीं होते?

    सुप्रसिद्ध उपन्यासकार सी एस लुईस ने लिखा है कि 'अहंकार की तृप्ति किसी चीज को पाने से नहीं अपितु उस चीज को कि सी दूसरे कीअ पेक्षा ज्यादा पाने से होती है।'

    वस्तुत: अहंकारका अर्थ ही अपने को दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करनेका दावा है, इसी वजह से लोग लोभ करते हैं ताकि वे दूसरों से संपन्न दिखें, दूसरों को दबाने की चेष्टा करते हैं ताकि अपनी प्रभुता सिद्ध करसकें और दूसरों को मूर्ख बनाना चाहते हैं ताकि स्वयं बुद्धिमान सिद्ध हो सकें।

    याद रखें। अहंकार सदैव दूसरों को मापदंड बना कर चलता है। दूसरों से तुलना कर अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने की वृत्ति का नाम ही अहंकार है। इतिहास इस बात का गवाह है कि कैसे महान सभ्यताओं, शक्तिशाली राजवंशों और साम्राज्यों ने अहंकारी, अभिमानी और घमंडी शासकों के हाथों में गिरकर अपने मूल अस्तित्व को ही मिटा दिया।

    अतीत के राजा महाराजाओं और वर्तमान के शासकों के घमंडी स्वभाव की वजह से ही यह कहावत बनाई गई है कि सत्ता भ्रष्ट करती है और पूर्ण सत्ता बिल्कुल ही भ्रष्ट करती है। पुराणों में उल्लेख आता है कि देवता असुरों से जब-जब भी पराजित हुए तो उसका कारणर हा उनका असंगठित होना, क्योंकि प्रत्येकदेवता को अपनी शक्ति का अहंकार रहा और इसलिए वे आपस में तालमेल बिठा नहीं सके।

    कहने का भाव यहहै कि किसी व्यक्ति में सारे सदगुण होते हुए भी यदि उसके भीतर अहंकार विद्यमान है तो वह उसके सद्गुणों की शक्तिको उसी प्रकार आवृत कर लेगा, जिस प्रकारकी आंख में पड़ा हुआ तिनका सारी दृष्टि को ढक लेता है।

    महाभारत में इस प्रकार के कई प्रसंग आते हैं, जब भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुनके अभिमान का मर्दन किया और उसे भगवत प्राप्ति में सबसे बड़ा अवरोध बताया. इसी प्रकार रामायण में भी नारद के अभिमान का प्रसंग आता है और वे अनुभव करते हैं कि उनके मिथ्या अभिमान के कारण वे भगवान से कितने विमुख होते जा रहे हैं।

    अहंकारी व्यक्ति सदा अपने आप को दूसरों की भेंट में अधिक महत्वपूर्ण मानता है और अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए वे अन्य से टक्कर लेने के लिए सदैव तत्पर रहता है। किन्तु ऐसा करने में वह ये भूल जाता है कि महत्वपूर्ण होना एक अलग बात है और स्वयं को महत्वपूर्ण मानना तथा उसे सिद्ध करना सर्वथा दूसरी बात है।

    हमें इस हकीकत को भूलना नहीं चाहिए कि संसार में सबसे महत्वपूर्ण यदि कोई है तो वह सर्व शक्तिमान परमात्मा है और उस सर्वोच्च सत्ता की ऐसी कोई चेष्टा दिखाई नहीं देती जोवह अपने आपको महत्वपूर्ण सिद्ध करने केलिए करता हो।

    परमात्मा को अपनी सत्ता का अहंकार नहीं : अब जो समस्त संसार के स्वामी हैं, वे परमपिता परमात्मा अपनी सत्ता का अहंकार नहीं रखते हैं, तो क्या कारण है कि हम जैसे अरबों व्यक्तियों के होते हुए हम अपने आपको सबसे महत्वपूर्ण मानें और दूसरों से टक्कर लेते फिरें।

    इसलिए, बेहतर होगा कि हम अहंकाररूपी इस बीमारी को परमात्म कृपा का टिका लगाकर सदा के लिए मुक्ति प्राप्त करें, अन्यथा यह ऐसी खतरनाकबीमारी हैं जो हमारे जीवन को संपूर्णत: उजाड़ सकती है।