जीवन में कैसे मिल सकता है आनंद
आनंद कहीं खोजने या बाजार में मिलने वाली चीज नहीं है। यह आपके और हमारे अंदर ही है। आनंद के स्रोत को पहचानना ही अध्यात्म का चरम है। आध्यात्मिक गुरु अमृतानंदमयी का विश्लेषण..
आनंद कहीं खोजने या बाजार में मिलने वाली चीज नहीं है। यह आपके और हमारे अंदर ही है। आनंद के स्रोत को पहचानना ही अध्यात्म का चरम है। आध्यात्मिक गुरु अमृतानंदमयी का विश्लेषण..
ए क बार टीवी पर कोई फिल्म दिखाई जा रही थी। कुछ लोग इसे एकटक देख रहे थे। उन्हें न भूख लग रही थी और न ही प्यास। अपने आसपास के वातावरण से भी वे अनभिज्ञ हो चुके थे। फिल्म के दृश्यों को देखकर कभी उनकी आंखों में आंसू आते, तो कभी खुश होकर वे तालियां पीटने लगते। खुश होने के लिए उन्हें किसी प्रकार का प्रयास नहीं करना पड़ रहा था। दरअसल, आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है, जो कहीं किसी दुकान पर मिलती हो। यह तो हमारे अंदर ही होता है, जिसे बिना प्रयास के भी पाया जा सकता है। कोई भी व्यक्ति जिस दिन आनंदित
रहने के स्रोत को ढूंढ़ लेगा, उसी दिन उसे सच्ची आध्यात्मिकता भी प्राप्त हो जाएगी।
हमारे भीतर ही है सुख का स्रोत कबीर कहते हैं, ‘कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूंढे़ वन माहि...’। हिरण के अंदर ही कस्तूरी होती है, लेकिन उसकी सुगंध उसे बाहर से आती प्रतीत होती है और वह उसे वन में ढूंढ़ता फिरता
है। वास्तव में आनंद किसी वस्तु में नहीं, बल्कि हमारे भीतर ही होता है। व्यक्ति या तो अपने काम में खुशी ढूंढ़ता है या फिर रिश्तों या बाहरी चीजों में। किसी को नशे के बिना जीना असंभव लगता है, तो कोई नशे से नफरत करता है। इसका सीधा मतलब है कि तनाव रहित महसूस करने के लिए ही व्यक्ति नशा करता है। तनाव से मुक्ति किसी को संगीत से तो किसी को दूसरी चीजों से मिल सकती है। किसी को पैसे संग्रह करने का भी नशा हो सकता है। इस तरह आनंद पाने के लिए व्यक्ति तरह-तरह के प्रयोजन करता रहता है।
दरअसल, व्यक्ति अपने आप से दूर भागता रहता है। वह अपने सच को जानना ही नहीं चाहता है। स्थूल वस्तुओं से मिलने वाले आनंद को ही वह वास्तविक मान लेता है, जबकि यह अस्थायी होता है। यह आनंद नहीं, बल्कि आनंद का भ्रम होता है। कुछ समय बाद व्यक्ति इससे ऊबने लगता है। आनंद पाने के लिए हमें किसी स्थूल वस्तु पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। सुख हो या दुख, हमें हर परिस्थिति में आनंदमग्न रहना चाहिए। हालांकि यह कहना सरल है, आजमाना बहुत मुश्किल।
साधना का महत्व
एक व्यक्ति हमेशा खुश रहने का प्रयास करता, लेकिन पड़ोसी के बेटे को परीक्षा में अधिक अंक पाता देखकर अपने बेटे के लिए दुखी होने लगता। ऑफिस में किसी व्यक्ति के प्रमोशन की सिर्फ बात चलने पर ही उसके दिल में खलबली- सी मच जाती।
दरअसल, खुशी बाहरी चीजों से नहीं मिलती है, इस बात को आत्मसात करना आसान नहीं है। सत्य से साक्षात्कार को सहज बनाने के लिए ही हमारे धर्म-दर्शन में साधना के महत्व को बताया गया है। अंदर की जो अशुद्धियां हैं, वे इसके द्वारा धीरे-धीरे खत्म हो जाती हैं।
ईश्वर के प्रति जो गलत धारणाएं बना ली गई हैं कि ईश्वर ही हमारे सुख या दुख के लिए जिम्मेदार है, समय के साथ वे भी गलत सिद्ध हो जाती हैं। ध्यान, भजन, सत्संग-ये सभी साधना के मार्ग हैं।
योग-ध्यान का समय
एक व्यक्ति ने कहा कि मुझे ऑफिस को दस घंटे देने पड़ते हैं। मीटिंग, फील्ड वर्क, लोगों से मिलने-जुलने में ही पूरा दिन निकल जाता है। ऑफिस से घर लौटने में एक घंटा समय लग जाता है। घर आने के बाद टीवी-अखबार,
चाय-नाश्ते और फिर खाने की टेबल पर बच्चों से बातचीत करने के बाद समय ही कहां बचता है कि ध्यान और योग किया जाए? उनसे पूछा गया कि क्या दिन भर में कुछ मिनटों के लिए वे रिलैक्स होते हैं? ऑफिस से घर आने या अखबार पढ़ने या टीवी देखने के समय में कुछ तो कटौती की जा सकती है? उस समय को योग और ध्यान में लगाया जा सकता है। यदि रोज दस से पंद्रह मिनट का भी समय निकाला जाए, तो विकट परिस्थितियों में भी व्यक्ति तनाव में नहीं आ सकता। हमें सिर्फ लक्ष्य के प्रति प्रेम जगाना होगा।
ध्यान का माध्यम कर्म
झील में यदि लगातार पत्थर फेंका जाए, तो तरंगें उठती रहती हैं। ऐसी स्थिति में तल देखने का कभी अवसर ही नहीं मिलता है। सत्व, रज और तम गुणों से बनी है इंसान की प्रकृति। व्यक्ति के रज में व्यस्त होने पर मस्तिष्क में सात्विक विचार आ ही नहीं सकते हैं। इसके लिए अपने-आपको समय देना होगा। बैठे-बैठे भी हम लोग बहुत
कुछ कर सकते हैं। काम को साधना बना लें। आप जो भी कार्य कर रहे हैं, उसे भी ध्यान का माध्यम बनाया जा सकता है। आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ने से न सिर्फ एकाग्रता जाग्रत होती है, बल्कि विचारों में सात्विकता भी आती है। अखबार की बजाय इसे भी पढ़ा जा सकता है। पुस्तकें हमारे विचारों को संपोषित करती हैं।
सत्य से साक्षात्कार
जब हम ध्यान लगाते हैं, तो इस सत्य से परिचित हो पाते हैं कि वास्तव में आनंद किससे मिलता है? हम यदि अंतर्मन में जाने में सफल हो जाते हैं, तो यह एहसास होता है कि अब हमें किसी प्रेरणा की जरूरत नहीं रह गई है। जब तक आप अंतर्मन में नहीं जाएंगे, आनंद मिलने वाला नहीं है। व्यक्ति या भक्त को सच्चिदानंद भी कहा
जाता है, यानी मैं ही हूं। स्वयं को जानने से पहले सभी कुछ मृगतृष्णा के समान है। वास्तव में अध्यात्म के माध्यम से हम यह जान जाते हैं कि हमारा अस्तित्व मन और स्थूल शरीर तक सीमित नही है,
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