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    गुरु का मार्गदर्शन तय कर देता है जीवन की सार्थकता

    By Preeti jhaEdited By:
    Updated: Tue, 19 Jul 2016 12:55 PM (IST)

    गुरु की कृपा के अभाव में व्यक्ति असंस्कृत, फूहड़ और तेज विहीन रह जाता है। ऐसे मनुष्य अनुकूल परिस्थितियों का भी लाभ नहीं उठा पाते!

    गुरु वह तत्व है, जो अज्ञान के स्वरूप में फैले अंधेरे का नाश करके ज्ञान के तेज का प्रकाश फैलाता है। ऐसे सद्गुरु का आशीष और सान्न्ध्यि पाने के लिए गहरी चाहत और उनके चरणों में अपना सर्वस्व समर्पण करने की आतुरता आवश्यक है। जो मनुष्य सद्गुरु के श्रीचरणों में भक्तिपूर्वक स्वयं को न्यौछावर करने की इच्छा लिए आगे बढ़ते हैं, वे ही गुरु के आशीर्वाद का सच्चा आनंद पाते हैं।

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    मनुष्य अबोध शिशु के रूप में पृथ्वी पर जन्म लेता है। तब न उसमें भला-बुरा सोचने की क्षमता होती है और न ही किसी तथ्य को समझने, परिस्थितियों से लाभ उठाने या अपने गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने की शक्ति। मनुष्य की जीवन यात्रा किसी पाठशाला में भर्ती किए गए छोटे बालक की तरह आरंभ होती है। उस समय उसे गुरुश्रेष्ठ द्वारा जो कुछ सिखाया या समझा दिया जाता है, उसका संपूर्ण जीवन उन्हीं आधारों पर आगे बढ़ता है। जिस तरह बालक के जीवन को आगे बढ़ाने का उत्तरदायित्व अभिभावकों का होता है, उसी तरह उसके व्यक्तित्व की आधारशिला गढ़ने का सद्कार्य गुरुजन करते हैं। गुरु ही हैं, जो संस्कृति और सभ्यता सिखाते हैं।

    गुरु का अर्थ सिर्फ शिक्षा देने वाला ही नहीं, अपितु अलग-अलग संदर्भों में माता, पिता, सांसारिक शिक्षा देने वाले शिक्षक, व्यावहारिक कुशलता सिखाने वाले भाई, बहन और अच्छा-बुरा समझने में मदद करने वाले मित्र भी गुरु ही होते हैं।

    मनुष्य को अपने गुरु की शरण में जाकर स्वयं को सुसंस्कृत बनाने के लिए अपने गुण, कर्म और स्वभाव को परिष्कृत करने की पद्धति अपनानी चाहिए। यदि मनुष्य को अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों में सही गुरु का मार्गदर्शन मिल जाए तो उसकी विचार क्षमता और विवेक चेतना जागृत हो जाती है। इसी से उसका व्यक्तित्व निर्माण होता है और पूरा जीवन इसी आधार पर तय होता है।

    गुरु की कृपा के अभाव में व्यक्ति असंस्कृत, फूहड़ और तेज विहीन रह जाता है। ऐसे मनुष्य अनुकूल परिस्थितियों का भी लाभ नहीं उठा पाते, जबकि गुरु की कृपा से समझ और सोच पाए सुसंस्कृत मनुष्य प्रतिकूलताओं को भी सहायक बना लेते हैं। बिना गुरु की दिशा के व्यक्ति राह के पत्थर से अपना पांव चोटिल कर सकता है, जबकि गुरु की कृपा से विवेक पाने वाले व्यक्ति उसी पत्थर को सीढ़ी बनाकर और ऊंचा उठने में उसकी सहायता ले लेता है।

    मनुष्य को अपने व्यक्तित्व के विभिन्न् पहलुओं को जागृत करने और उनके माध्यम से समाज, राष्ट्र, परिवार व स्वयं की उन्न्ति के लिए प्रयास करते रहना चाहिए। इस पुनीत कार्य में गुरु ही हैं, जो मनुष्य मात्र की मदद कर सकते हैं। अत: जीवन में हर श्रेष्ठ व्यक्ति से कुछ सीखिए, उन्हें गुरु बनाइए और जीवन को अनंत ऊंचाइयों की ओर ले जाइए।

    (लेखक शांतिकुंज हरिद्वार स्थित अखिल विश्व गायत्री परिवार के सर्वप्रमुख हैं।)