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    कृतज्ञता दैवीय गुण है

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    Updated: Mon, 09 Jun 2014 12:43 PM (IST)

    कृतज्ञता दैवीय गुण है। कृतज्ञता यानी अपने प्रति की हुई श्रेष्ठ और उत्कृष्ट सहायता के लिए श्रद्धावान होकर सम्मान का प्रदर्शन करना। कृतज्ञता इंसानियत की सर्वोत्कृष्ट विशेषता है। यह हमें बताती है कि प्रत्यक्ष और परोक्ष किसी भी रूप में और कभी भी यदि किसी ने कोई सहयोग और सहायता प्रदान की हो, तो उसके लिए यदि कुछ न कर सकें तो हृदय से आभार अ

    कृतज्ञता दैवीय गुण है। कृतज्ञता यानी अपने प्रति की हुई श्रेष्ठ और उत्कृष्ट सहायता के लिए श्रद्धावान होकर सम्मान का प्रदर्शन करना। कृतज्ञता इंसानियत की सर्वोत्कृष्ट विशेषता है। यह हमें बताती है कि प्रत्यक्ष और परोक्ष किसी भी रूप में और कभी भी यदि किसी ने कोई सहयोग और सहायता प्रदान की हो, तो उसके लिए यदि कुछ न कर सकें तो हृदय से आभार अवश्य प्रकट करें।

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    कृतज्ञता दिव्य प्रकाश है। यह प्रकाश जहां होता है, वहां देवताओं का वास माना जाता है। देवता देने वाली शक्तियों का नाम है। कृतज्ञता दी हुई सहायता के प्रति आभार प्रकट करने का, श्रद्धा के अर्पण का भाव है। जो दिया है, हम उसके ऋणी हैं। इसकी अभिव्यक्ति ही कृतज्ञता है और अवसर आने पर उसे समुचित रूप से लौटा देना, इस गुण का मूलमंत्र है। इसी एक गुण के बल पर समाज और इंसान में एक सहज संबंध विकसित हो सकता है, भावना और संवेदना का जीवंत वातावरण निर्मित हो सकता है। लेकर लौटाना तो प्रकृति का नियम है। दी हुई चीजों को पाकर उसके बदले में किसी रूप में देने वाले को हस्तांतरित कर देना ही कृतज्ञता है। जबकि दी हुई चीजों को रख लेना और उसे अपने स्वार्थ के लिए उपयोग करना और औरों को उससे लाभ न होने देना आसुरीवृत्ति है और इसे ही कृतघ्नता कहते हैं।

    कृतघ्न व्यक्ति कभी संतुष्ट और सुखी नहीं हो सकता है। वह सदा अपने प्रति दिए गए सहयोग को संशय और संदेह की दृष्टि से देखता है और बताता-जताता है कि उसके प्रति कितना गलत किया गया है। कृतघ्न 'सहयोग' शब्द का अर्थ नहीं जानता है। वह सर्वाधिक बुरा उनका करता है जो उसको सहयोग देने वाले होते हैं। इसकी परिणति होती है कि एक दिन उसके प्रति सभी सहयोग बंद हो जाते हैं। कृतघ्नता एक चोरवृत्ति है। दूसरों से लेकर न लौटाना इसकी दुष्प्रवृत्ति होती है। इससे अनगिनत नुकसान होते हैं, जबकि कृतज्ञता से असंख्य लाभ होते हैं। कृतज्ञ व्यक्ति सम्मान और सहयोग के रूप में वापस लौटाता है। वह परस्पर सहयोग में विश्वास रखता है और सुखी-संतुष्ट रहता है। इसलिए उसे दृश्य, अदृश्य रूप से दैवीय अनुदान-वरदान उपलब्ध होते हैं। जिन्हें दैवीय वरदान मिलता है, उनका जीवन कभी भी निर्थक नहीं जाता, बल्कि उन्हीं का जीवन सार्थक होता है। इसलिए कृतज्ञ बने रहना चाहिए और कृतज्ञता का संवर्धन करना चाहिए।

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