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ऊर्जा: नरक के द्वार- जहां शांति, सद्भाव और भाईचारा है वहीं स्वर्ग; जहां हिंसा, घृणा, द्वेष और अशांति वहीं नरक

काम मानव जीवन के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक है पर अनैतिक कामनाएं मनुष्य के लिए नरक के द्वार खोल देती हैं। अर्थात केवल दुख और अशांति को जन्म देती हैं। सभ्य समाज की स्थापना के लिए इनका परित्याग ही श्रेयस्कर है।

By Bhupendra SinghEdited By: Published: Sun, 01 Aug 2021 04:21 AM (IST)Updated: Sun, 01 Aug 2021 04:21 AM (IST)
ऊर्जा: नरक के द्वार- जहां शांति, सद्भाव और भाईचारा है वहीं स्वर्ग; जहां हिंसा, घृणा, द्वेष और अशांति वहीं नरक
नरक के तीन द्वार हैं-काम, क्रोध और लोभ।

धर्मशास्त्रों में वर्णित स्वर्ग-नरक सभी को रोमांचित करते हैं, पर आज तक किसी ने देखा नहीं। चाहे ये अन्यत्र भले न हों, पर इस धरती पर अवश्य हैं। दुनिया का हर व्यक्ति इसका अनुभव करता है, पर समझता नहीं। यहीं स्वर्ग जैसे सुख हैं और नरक जैसे दुख भी। जिस समाज में शांति, सद्भाव और भाईचारा हैं वहीं स्वर्ग है, क्योंकि वहां सुख-समृद्धि है। इसके विपरीत जहां इनका अभाव है वहीं नरक है, क्योंकि वहां हिंसा, घृणा, द्वेष और अशांति के सिवा कुछ नहीं होता। स्वर्ग और नरक की परिभाषा भी यही है। यह पूर्णत: मनुष्य पर निर्भर है कि वह किसकी स्थापना करना चाहता है। इसके लिए अन्य कोई कारक जिम्मेदार नहीं।

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गीता के सोलहवें अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं-स्वयं का नाश करने वाले नरक के तीन द्वार हैं-काम, क्रोध और लोभ। आत्मकल्याण चाहने वाले पुरुष को इनका परित्याग कर देना चाहिए। जो इनके वशवर्ती होकर जीते हैं, उन्हेंं न कभी सुख मिलता है, न शांति। मानस के सुंदरकांड में बाबा तुलसीदास भी रावण से विभीषण के माध्यम से यही कहते हैं-हे नाथ! काम, क्रोध, लोभ और मोह नरक के पंथ हैं। इनका परित्याग कर दीजिए, पर वह नहीं माना। परिणाम किसी से छिपा नहीं। वस्तुत: संसार में होने वाले सभी अपराधों के मूल में यही हैं, जो दुनिया को नरक बनाते हैं।

काम से तात्पर्य केवल काम वासना से न होकर मनुष्य के मन में उत्पन्न होने वाली समस्त इच्छाओं से है, जिनकी पूर्ति में वह सदा यत्नशील रहता है। इस दृष्टि से काम मानव जीवन के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक है, पर अनैतिक कामनाएं मनुष्य के लिए नरक के द्वार खोल देती हैं। अर्थात केवल दुख और अशांति को जन्म देती हैं। इसी प्रकार क्रोध और लोभ भी अनर्थ के मूल हैं। ये भी सदा पारिवारिक एवं सामाजिक अशांति का कारण बनते हैं। अत: सभ्य समाज की स्थापना के लिए इनका परित्याग ही श्रेयस्कर है।

- डाॅ. सत्य प्रकाश मिश्र


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