गंगा की कथा (Ganga ki Katha)
हिंदू धर्म में गंगा नदी को देवी या माता के रूप में पूजा जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मां गंगा में स्नान करने से जीवन में आ रही समस्याएं दूर हो जाती हैं। गंगा नदी के जन्म और उद्गम से जुड़ी कई कथाएं प्रचलित हैं।

गंगा नदी को मोक्षदायिनी और जीवनदायिनी के नाम से जाना जाता है। हिंदू धर्म में भी मां गंगा का विशेष महत्व है। यह भारत की सबसे महत्वपूर्ण नदियों में से एक है, जो भारत, नेपाल और बांग्लादेश में कुल मिलाकर 2525 किलोमीटर की दूरी तय करती है। गंगा नदी को न केवल स्वच्छ और शुद्ध पानी के लिए जाना जाता है, बल्कि आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी इनका विशेष महत्व है। हिंदू धर्म में इन्हें देवी के रूप में पूजा जाता है। भारतीय वेद एवं पुराणों में मां गंगा के संदर्भ में विस्तार से बताया गया है। एक मान्यता यह है कि जो व्यक्ति अपने जीवन काल में एक बार भी मां गंगा में स्नान कर लेता है, उसके न केवल इस जन्म के बल्कि पूर्वजन्म के पाप भी नष्ट हो जाते हैं।
गंगा नदी के तट पर बसे शहरों की जलापूर्ति भी इसी नदी से होती है। साथ ही कृषि एवं पर्यटन जैसे बड़े उद्यम भी गंगा नदी के माध्यम से ही किए जाते हैं। स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी मां गंगा को बहुत ही लाभदायक माना गया है। इस नदी के जल में कुछ ऐसी विषाणु होते हैं, जो हानिकारक कीटाणुओं को मारने में सक्षम होते हैं, जिस वजह से इस नदी का पानी पीने से व्यक्ति को कोई बीमारी नहीं होती है।
इस स्थान से होता है गंगा नदी का उद्गम
गंगा नदी का उद्गम हिमालय की गोद में बसे गढ़वाल के गोमुख स्थान के गंगोत्री ग्लेशियर से होता है। इस विशेष स्थान पर मां गंगा को समर्पित एक मंदिर भी उपस्थित है। साथ ही इसे तीर्थ क्षेत्र भी माना जाता है। यहां मौजूद छह बड़ी और उनकी सहायक पांच छोटी धाराओं का भौगोलिक एवं सांस्कृतिक महत्व सबसे अधिक है। साथ ही यह पूजनीय नदी यमुना, कोसी, गंडक, घाघरा जैसी कई नदियों से जुड़ती है। इसके साथ मां गंगा के उद्गम की कथा पुराणों में भी विस्तार से पंडित की गई है।
मां गंगा के उद्गम की पौराणिक कथा
पौराणिक कथा के अनुसार, राजा बलि नामक शासक ने भगवान विष्णु को प्रसन्न करके पृथ्वी लोक पर अपना अधिकार जमा लिया था और स्वयं को भगवान समझने लगा था। अहंकार में चूर होकर राजा बलि ने देवराज इंद्र को युद्ध के लिए ललकारा। स्वर्गलोक पर खतरा मंडराता हुआ देख देवराज इंद्र भगवान विष्णु से मदद मांगने पहुंचे। तब राजा बलि के उद्धार के लिए भगवान विष्णु ने वामन रूप धारण कर लिया।
उसी समय राजा बलि अपने राज्य की सुख-समृद्धि के लिए अश्वमेध यज्ञ करवा रहा था। जिसमें उसने विशाल ब्राह्मण भोजन का आयोजन किया और उसे दान दक्षिणा दी। तभी भगवान विष्णु वामन रूप में राजा बलि के पास पहुंचे। बलि को यह आभास हो गया था कि भगवान विष्णु ही उनके पास आए हैं। राजा बलि ने जब ब्राह्मण से दान मांगने के लिए कहा, तब भगवान वामन ने राजा बलि से तीन कदम जमीन दान के रूप में मांगी। यह सुनकर राजा बलि खुशी-खुशी तैयार हो गया। तब भगवान विष्णु ने अपना विकराल रूप धारण किया। उनका पैर इतने विशाल हो गए कि उन्होंने पूरी पृथ्वी को एक पैर से नाप लिया और दूसरे पग से पूरे आकाश को। इसके बाद वामन भगवान ने पूछा कि वह अपना तीसरा पग कहां रखें। तब राजा बलि ने कहा कि 'मेरे पास देने के लिए और कुछ नहीं है' और अपना शीश झुका कर कहा कि वह अपना तीसरा पग उसके शरीर पर रख दें। तब वामन भगवान ने ऐसा ही किया और ऐसे राजा बलि पाताल लोक में समा गया।
पौराणिक कथा के अनुसार, जब भगवान विष्णु ने अपना दूसरा पैर आकाश की ओर उठाया था, तब ब्रह्मा जी ने उनके पैर धोए थे और उस जल को कमंडल में भर लिया था। जल के तेज से ब्रह्मा जी के कमंडल में मां गंगा का जन्म हुआ था। कुछ समय बाद ब्रह्मा जी ने उन्हें पर्वतराज हिमालय को पुत्री के रूप में सौंप दिया था। एक कथा यह भी प्रचलित है कि जब भगवान वामन ने अपना एक पैर आकाश की ओर उठाया था तब उनकी चोट से आकाश में छेद हो गया था। इसी से तीन धाराएं फूट पड़ी थीं। एक धारा पृथ्वी पर गिरी, दूसरी स्वर्ग में और तीसरी पाताल लोक में चली गई। इसलिए मां गंगा को त्रिपथगा के नाम से भी जाना जाता है।
इस तरह धरती पर आई मां गंगा
गंगा नदी के धरती पर आगमन की एक कथा यह प्रचलित है कि, प्राचीन काल में सगर नमक प्रतापी राजा हुआ करता था। जिसने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया और यज्ञ के दौरान घोड़ा छोड़ दिया। जब इस यज्ञ का पता देवराज इंद्र को चला तो वह चिंता में आ गए। उन्हें यह चिंता थी कि अगर अश्वमेध का घोड़ा स्वर्ग से गुजर जाता है, तो राजा सगर स्वर्ग लोक पर भी अपना साम्राज्य स्थापित कर लेंगे। पौराणिक काल में अश्वमेध यज्ञ के दौरान छोड़ा गया घोड़ा जिस राज्य से गुजरा था वह राज्य उस राजा का हो जाता था। इसलिए स्वर्गलोक गवाने के भय के कारण इंद्र ने अपना वेश बदलकर राजा सगर के घोड़े को चुपचाप कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। इस दौरान कपिल मुनि घोर ध्यान मुद्रा में थे।
जब घोड़े के चोरी की बात राजा सगर को मिली। तब वह अत्यंत क्रोधित हो गए और उन्होंने आवेश में आकर अपने साठ हजार पुत्रों को घोड़े की खोज में भेज दिया। जब उनके पुत्रों को यह ज्ञान हुआ कि कपिल मुनि के आश्रम में वह घोड़ा बंधा है, तब उन्होंने भ्रान्तिवश कपिल मुनि को चोर मान लिया और उनसे युद्ध करने के लिए आश्रम में घुस गए। ध्यान मुद्रा में लीन कपिल मुनि को जब शोर सुनाई दिया तो वह घटनास्थल पर पहुंचे। जहां सगर के पुत्र उन पर घोड़े की चोरी का झूठा इल्जाम लगा रहे थे। यह सुनकर देव मुनि अत्यंत क्रोधित हो गए और उन्होंने क्रोध में आकर राजा सगर के सभी पुत्रों को अग्नि में भस्म कर दिया और उसके सभी पुत्र प्रेत योनि में भटकने लगे। ऐसा इसलिए क्योंकि बिना अंतिम संस्कार किए राख में बदल जाने से पुत्रों को मुक्ति प्राप्त नहीं हो पा रही थी।
राजा सगर के कुल में जन्मे राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए भगवान विष्णु की कठोर तपस्या की। तपस्या से प्रसन्न होकर जब भगवान विष्णु ने भगीरथ को दर्शन दिया तो उन्होंने वरदान मांगने के लिए कहा। भगीरथ ने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए मां गंगा को धरती पर लाने की प्रार्थना की। मां गंगा मृत्युलोक में आने के लिए तैयार नहीं थीं, लेकिन उन्होंने एक युक्ति सोची और यह शर्त रखी कि वह अति तीव्र वेग से धरती पर उतरेंगी और रास्ते में आने वाले सभी चीजों को बहा देंगी। गंगा की शर्त से भगवान विष्णु भी चिंता में आ गए और भोलेनाथ से इसका हल निकालने के लिए कहा। तब भगवान विष्णु ने कहा कि वह गंगा को अपनी जटाओं में समाहित कर लेंगे, जिससे धरती पर विनाश नहीं होगा। इसके बाद भगवान शंकर ने गंगा को अपनी जटाओं में समाहित किया और इस तरह गंगा नदी धरती पर प्रकट हुईं।
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