व्यक्ति की संवेदनशीलता ही अनुभूति है
किसी ने सही कहा है ‘जो अभिव्यक्त हो जाएं वे शब्द हैं जो न हों वे अनुभूति।’ सभी प्राणियों में अनुभूति की क्षमता होती है। जब तक जीवित हैं आंतरिक और बाह् ...और पढ़ें

किसी ने सही कहा है, ‘जो अभिव्यक्त हो जाएं वे शब्द हैं, जो न हों वे अनुभूति।’ सभी प्राणियों में अनुभूति की क्षमता होती है। जब तक जीवित हैं, आंतरिक और बाह्य वस्तुस्थिति हमारी अनुभूति का कारण बनती है। व्यक्ति जितना संवेदनशील होगा, उसकी अनुभूति उतनी ही प्रबल होगी। आज दुखद स्थिति यह है कि व्यक्ति और समाज की चेतन और अचेतन के प्रति अनुभूति मानो जड़-सी हो चली है। क्या हम अब प्रकृति के होने और उसके रंग-रूप, सुगंध में डूब अपनी निजी सत्ता को भूल पाते हैं?
यह सच है कि हम आज की असीमित व्यस्तता के जाल में फंसे होने पर भी अपनी आत्मसत्ता को झकझोर कर संवेदनशील बन सकते हैं। सांसारिक ऊहापोह में से थोड़ा समय चुराकर जीवन आनंद लेना व्यर्थ नहीं। इसमें दो राय नहीं कि बाहरी वातावरण को सहज भाव से देखना, उससे सीखना, ज्ञान सहेजना और अपनी अनुभूति को धीरे से कुरेदना जीवन को समृद्ध करता है। संवेदनशीलता हमारी भावुक अवस्था का परिचय देती है। अनुभूति शून्य व्यक्ति का दूसरों के दुख, पीड़ा से प्रभावित न होना अंतज्र्ञान से वंचित होना है।
अनुभूति एक मानसिक प्रक्रिया है। मन में होने वाला बोध है, जो व्यक्ति में स्वाभाविक रूप से विद्यमान होता है, जिसे कुंठ होने से पहले जीवंत किया जा सकता है। अनुभूति वह विधि है, जो उच्च कोटि का साहित्य पढ़ने, लिखने, चित्र बनाने और ज्ञान का निर्माणकर उत्तेजनाओं को पकड़ने की क्षमता प्रदान करती है। यह कहीं न कहीं हमें आध्यात्मिकता से जोड़े रहती है। यह न ही समय के अधीन है और न आयु देखती है। अनुभूति हमारे जीवित होने का प्रमाणपत्र भी है। इसका प्रभाव हमारे जीवन दर्शन पर जितना हो, उतना सार्थक है। जीवन में जितनी भी अनुभूतियां होती हैं भक्ति की अनुभूति सर्वश्रेष्ठ है। भक्ति मिल गई तो सब कुछ मिल गया। भक्ति आ जाने पर मोक्ष यूं ही प्राप्त हो जाता है। परमात्मा के प्रति जो प्रेम है उसे ही भक्ति कहते हैं।
छाया श्रीवास्तव

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