ज्ञान पिपासा: मनुष्य के अंत:करण में उत्पन्न होने वाली ज्ञान पिपासा का भाव पवित्र तथा लोकोपकारी है
यद्यपि भूख और प्यास शरीर के धर्म हैं जिसका अनुभव प्रत्येक शरीरधारी करता है। शारीरिक क्रियाशीलता के लिए इनकी पूर्ति आवश्यक है जो अन्न-जल से हो जाती है ...और पढ़ें

ज्ञान पिपासा का अर्थ है ज्ञान की प्यास। यद्यपि भूख और प्यास शरीर के धर्म हैं, जिसका अनुभव प्रत्येक शरीरधारी करता है। शारीरिक क्रियाशीलता के लिए इनकी पूर्ति आवश्यक है, जो अन्न-जल से हो जाती है, परंतु मानवजीवन की मांगलिक यात्रा के लिए जिस प्यास की आवश्यकता होती है, वह है ज्ञान की प्यास। भाग्यशाली हैं वे लोग जिन्हें यह पीड़ित करती है, परंतु इस पीड़ा का आनंद विलक्षण होता है, जो अकथनीय और अलौकिक है। इसका अनुभव वही कर सकता है जिसे यह सताती है। इसे शांत करने की क्षमता केवल गुरु के पास है। जैसे मेघ वर्षा से धरती की प्यास बुझा देता है, वैसे ही गुरु अपनी ज्ञान वर्षा से शिष्य की ज्ञान पिपासा शांत कर उसके अंतस्तल को शीतल कर देता है।
गीता में ज्ञान को पवित्रतम कहा गया है। इसलिए मनुष्य के अंत:करण में उत्पन्न होने वाली ज्ञान पिपासा का भाव भी पवित्र तथा लोकोपकारी है। दुनिया का रूप जो प्रत्यक्षीकृत हो रहा है, मनुष्य की ज्ञान पिपासा का परिणाम है। मानव की लौकिक एवं आध्यात्मिक यात्र के मूल में यही ज्ञान पिपासा है। यही युग की निर्मात्री बन जगत का कल्याण करती है।
ज्ञान पिपासा अष्टावक्र में थी जिन्होंने मां के गर्भ में ही अपने ज्ञान को इतना तेजस्वी बना लिया कि एक दिन वेद पाठ करते समय अपने पिता को ही टोक दिया जिससे क्रुद्ध पिता ने उन्हें आठ जगह से टेढ़ा होने का शाप दे दिया। इसी ज्ञान पिपासा के बल पर उन्होंने राजा जनक की सभा में पिता के प्रतिद्वंद्वी को शास्त्रर्थ में पराजित किया और पिता के स्वाभिमान को लौटाया।
महाराष्ट्र के जस्टिस महादेव रानाडे अपनी ज्ञान पिपासा के कारण बंगाली नाई से बाल कटवाते समय भी बांग्ला सीखने का मोहसंवरण नहीं कर पाते थे। वस्तुत: उत्कट ज्ञान पिपासा जाति, पंथ, लिंग, आयु, देशकालादि का भेद नहीं करती। तभी तो भगवान दत्तात्रेय ने मक्खी, कीट, पतंगादि को भी गुरु बनाया।
डा. सत्य प्रकाश मिश्र

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