संगति का प्रभाव: साधु-संतों की संगति आम जन के लिए लाभदायी, पुण्यदायी और मोक्षदायी
‘संगत से गुण होत है संगत से गुण जात। बास-फास मिसरी सब एके भाव बिकात।’ अच्छी और बुरी संगति का प्रभाव उनके अनुसार पड़ता ही है। इसलिए जीवन में सुख प्राप्त करने के लिए हमारे पूर्वजों ने अच्छी संगति को श्रेयस्कर बताया। ऐसी संगति ही जीवन को सुवासित करती है।
साधु-संतों की संगति आम जन के लिए लाभदायी, पुण्यदायी और मोक्षदायी मानी गई है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की तरह सृजन, पोषण एवं कल्याण के अधिष्ठाता साधु-संत ही होते हैं। समाज और राष्ट्र में संस्कार का सृजन, शुभ विचारों से व्यक्तित्व का उत्थान करना, वैचारिक पोषण और दिव्य कर्मों से जन-जन के कल्याण का काम साधुओं द्वारा होता है। जब मानव का जीवन कामना और वासना के वशीभूत होकर पतित हो जाता है तब साधु-संतों के उपदेश मानव के अंतर्मन में ज्ञान की ज्योति जलाकर और अंत:करण के अंधियारे को मिटाकर उसे भटकने से बचाते हैं। वास्तव में साधु-संतों के पास उत्कृष्ट विचारों का दिव्य स्त्रोत होता है। उनके माध्यम से वे परोपकार, सेवा, सत्कर्म, यज्ञ, पूजा, प्रवचन और सत्संग कर मानव को सही दिशा दिखाकर उसका कल्याण करते हैं। उनकी संगति जन-जन के कल्याण के लिए दिव्य कर्मों की प्रेरणा देकर पोषण व उत्प्रेरणा प्रदान करती रहती है। साधु-संतों के प्रभाव से मानव में दिव्य कर्म करने की आदत बन जाती है और निकृष्ट कर्म से व्यक्ति मुक्ति पाता है।
साधु-संत पारस पत्थर की तरह अपनी संगति का लाभ देते हैं। जैसे कुरूप और मूल्यहीन लोहा पारस पत्थर की संगति से मूल्यवान स्वर्ण बन जाता है। उसी प्रकार तुच्छ व्यक्ति साधु की संगति से स्वर्ण की तरह मूल्यवान ही नहीं, अपितु महान बन जाता है। जिस तरह चंदन वन के आसपास का परिवेश भी उसकी सुगंध से महक उठता है, उसी तरह सामान्य जन भी साधु संगति की सुगंधि का लाभ पाकर जीवन को सुगंधित कर लेते है। देवर्षि नारद की संगति से रत्नाकार डाकू और भगवान बुद्ध की संगति से अंगुलिमाल जैसे डाकू संत बन गए। कहा भी गया है, ‘संगत से गुण होत है, संगत से गुण जात। बास-फास मिसरी सब एके भाव बिकात।’ अच्छी और बुरी संगति का प्रभाव उनके अनुसार पड़ता ही है। इसलिए जीवन में सुख प्राप्त करने के लिए हमारे पूर्वजों ने अच्छी संगति को श्रेयस्कर बताया है। ऐसी संगति ही जीवन को सुवासित करती है।
- मुकेश ऋषि