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    द्वारिका जाने वाले तीर्थयात्रों को गुरुवायुर और डाकोर का भी दर्शन करने का पुण्य मिलता है

    By Preeti jhaEdited By:
    Updated: Fri, 08 Jul 2016 11:29 AM (IST)

    मूर्ति को ढूंढ़ने के लिए भालों से तालाब में टटोला जाने लगा। जिसके दौरान भाले की नोक मूर्ति में चुभ गई, जिसका निशान आज भी उस मूर्ति पर मौजूद है।

    गुजरात के प्रमखु तीर्थस्थलों में है 'डाकोर'। डाकोर जी के मंदिर में द्वारिकाधीश की पूजा होती है। डाकोर आनंद-गोधरा बड़ी लाइन रेलवे मार्ग पर स्थित है। डाकोर का सर्वाधिक प्रसिद्ध मंदिर है रणछोड़ जी मंदिर । यह गोमती के किनारे और मुख्य बाजार के बीच है।

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    कहते हैं द्वापरयुग में जो द्वारिकाधीश की मूर्ति थी, वह द्वारिका के समुद्र में चले जाने के बाद लुप्त हो गई। तब उस मूर्ति को समुद्र से निकालकर गुरु बृहस्पति और पवन देव ने केरल में स्थित गुरुवायूर में स्थापित किया। द्वारिकाधीश की दूसरी मूर्ति डाकोर आई।

    वर्तमान में द्वारिकाधीश की मूर्ति द्वारिका स्थित वर्घिनीबावली (सावित्रीकुंड) से प्रकट हुई थी। अतः द्वारिका जाने वाले तीर्थयात्रों को गुरुवायुर और डाकोर का भी दर्शन करने का पुण्य मिलता है।

    मंदिर से जुड़ी हुई कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। प्राचीन मान्यता के अनुसार डाकोर जी के मंदिर की मूर्ति द्वारिका से लाई गई थी, जिसके पीछे एक बहुत ही रोचक कथा जुड़ी हुई है। बाजे सिंह नाम का एक राजपूत था। वह डाकोर में रहता था। वह भगवान रणछोड़ का भक्त था। वह अपने हाथों पर तुलसी का पैधा उगाया करता था और साल में दो बार द्वारिका जा कर भगवान को तुसली दल अर्पित करता था। कई सालों तक वह ऐसा करता रहा।

    जब वह वृद्ध हो गया और चलने फिरने में असमर्थ हो गया, तब एक रात उसके सपने में भगवान ने दर्शन दिए। भगवान ने उससे कहा कि अब द्वारिका आने की कोई जरुरत नहीं है और उसे द्वारिका के मंदिर से भगवान की मूर्ति उठा कर डाकोर जी लाने को कहा।

    बाजे सिंह ने भगवान के बताए हुए तरीके से आधी रात में द्वारिका के मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करके, भगवान की मूर्ति वहां से चुरा ली और यहां लाकर स्थापित कर दी।

    कहते हैं कि सुबह जब मंदिर के दरवाजे खोले गए तब मंदिर से मूर्ति गायब होने की बात पता चली। यह बात जानने पर मूर्ति को ढूंढ़ना शुरू किया गया। यह बात पता चलने पर बाजे सिंह ने भगवान की मूर्ति यहां एक तालाब में छिपा दी। मूर्ति को ढूंढ़ने के लिए भालों से तालाब में टटोला जाने लगा। जिसके दौरान भाले की नोक मूर्ति में चुभ गई, जिसका निशान आज भी उस मूर्ति पर मौजूद है।

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