हनुमान जी का अनोखा है व्यक्त्तिव जानें इसकी कुछ विशेषतायें
मंगलवार को श्री हनुमान का पूजन होता है। आज आपका परिचय कराते हैं उनके अदभुद व्यक्त्तिव से जो बना है कठोर साधना और तप से।
साधना के तीन गुण
धर्मशास्त्रों में आत्मज्ञान की साधना के लिए तीन गुणों की अनिवार्यता बताई गई है- बल, बुद्धि और विद्या। यदि इनमें से किसी एक गुण की भी कमी हो, तो साधना का उद्देश्य सफल नहीं हो सकता है। सबसे पहले तो साधना के लिए बल जरूरी है। निर्बल व कायर व्यक्ति साधना का अधिकारी नहीं हो सकता है। दूसरे साधक में बुद्धि और विचार शक्ति होनी चाहिए। इसके बिना साधक पात्रता विकसित नहीं कर पाता है। तीसरा अनिवार्य गुण विद्या है। विद्यावान व्यक्ति ही आत्मज्ञान हासिल कर सकता है। हनुमान जी के जीवन में इन तीनों गुणों का अद्भुत समन्वय मिलता है। इन्हीं गुणों के बल पर वे जीवन की प्रत्येक कसौटी पर खरे उतरते हैं । रामकथा में हनुमानजी का चरित्र अत्यंत प्रभावशाली है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्शो को मूर्त रूप देने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
संवाद कुशलता
हनुमान जी का संवाद कौशल विलक्षण है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण अशोक वाटिका में जब वे पहली बार माता सीता से मिलते हैं तब दिखार्इ देता है। वे अपनी बातचीत से न सिर्फ उन्हें भयमुक्त करते हैं, बल्कि उन्हें यह भी भरोसा दिलाते हैं कि वे श्रीराम के ही दूत हैं- कपि के वचन सप्रेम सुनि, उपजा मन बिस्वास। जाना मन क्रम बचन यह, कृपासिंधु कर दास ।। (सुंदरकांड)। यह कौशल आज के युवा उनसे सीख सकते हैं। इसी तरह समुद्र लांघते वक्त देवताओं के कहने पर जब सुरसा ने उनकी परीक्षा लेनी चाही, तो उन्होंने अतिशय विनम्रता का परिचय देते हुए उस राक्षसी का भी दिल जीत लिया। कथा है कि श्री राम की मुद्रिका लेकर महावीर हनुमान जब सीता माता की खोज में लंका की ओर जाने के लिए समुद्र के ऊपर से उड़ रहे थे, तभी सर्पो की माता सुरसा उनके मार्ग में आ गई थीं। उसने कहा कि आज कई दिन बाद उसे इच्छित भोजन प्राप्त हुआ है। इस पर हनुमान जी बोले, 'मां, अभी मैं रामकाज के लिए जा रहा हूं, मुझे समय नहीं है। जब मैं अपना कार्य पूरा कर लूं तब तुम मुझे खा लेना। पर सुरसा नहीं मानी और हनुमानजी को अपना ग्रास बनाने के लिए तरह-तरह के उपक्रम करने लगी। तब हनुमान जी बोले, 'मां आप तो मुझे खाती ही नहीं है, अब इसमें मेरा क्या दोष?' सुरसा हनुमान का बुद्धि कौशल व विनम्रता देख दंग रह गई और उसने उन्हें कार्य में सफल होने का आशीर्वाद देकर विदा कर दिया। यह प्रसंग सीख देता है कि केवल सामर्थ्य से ही जीत नहीं मिलती है, विनम्रता से समस्त कार्य सुगमतापूर्वक पूर्ण किए जा सकते हैं।
सामर्थ्य के अनुसार प्रदर्शन
महावीर हनुमान ने अपने जीवन में आदर्शों से कोई समझौता नहीं किया। लंका में रावण के उपवन में हनुमान जी और मेघनाथ के मध्य हुए युद्ध में मेघनाथ ने 'ब्रह्मास्त्र' का प्रयोग किया। हनुमान जी चाहते तो वे इसका तोड़ निकाल सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि वे उसका महत्व कम नहीं करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने ब्रह्मास्त्र का तीव्र आघात सह लिया। तुलसीदास ने हनुमानजी की मानसिकता का सूक्ष्म चित्रण करते हुए लिखा है - 'ब्रह्मा अस्त्र तेहि सांधा, कपि मन कीन्ह विचार। जौ न ब्रहासर मानऊं, महिमा मिटाई अपार।। हनुमान के जीवन से हम शक्ति व सामर्थ्य के अवसर के अनुकूल उचित प्रदर्शन का गुण सीख सकते हैं। तुलसीदास जी हनुमान चालीसा में लिखते हैं- 'सूक्ष्म रूप धरी सियहिं दिखावा, विकट रूप धरि लंक जरावा।' सीता के सामने उन्होंने खुद को लघु रूप में रखा, क्योंकि यहां वह पुत्र की भूमिका में थे, लेकिन संहारक के रूप में वे राक्षसों के लिए काल बन गए।
विवेक के अनुसार निर्णय
अवसर के अनुसार खुद को ढाल लेने की हनुमानजी की प्रवृत्ति अद्भुत है। जिस वक्त लक्ष्मण रणभूमि में मूर्छित हो गए, उनके प्राणों की रक्षा के लिए वे पूरे पहाड़ उठा लाए, क्योंकि वे संजीवनी बूटी नहीं पहचानते थे। अपने इस गुण के माध्यम से वे हमें तात्कालिक विषम स्थिति में विवेकानुसार निर्णय लेने की प्रेरणा देते हैं। हनुमान जी हमें भावनाओं का संतुलन भी सिखाते हैं। लंका दहन के बाद जब वह दोबारा सीता जी का आशीष लेने पहुंचे, तो उन्होंने उनसे कहा कि वे अभी उन्हें वहां से ले जा सकते हैं, लेकिन वे ऐसा करना नहीं चाहते हैं। रावण का वध करने के पश्चात ही यहां से प्रभु श्रीराम आदर सहित आपको ले जाएंगे। इसलिए उन्होंने सीता माता को उचित समय पर आकर ससम्मान वापिस ले जाने को आश्वस्त किया। उनका व्यक्तित्व आत्ममुग्धता से कोसों दूर है। सीताजी का समाचार लेकर सकुशल वापस पहुंचे श्री हनुमान की हर तरफ प्रशंसा हुई, लेकिन उन्होंने अपने पराक्रम का कोई किस्सा प्रभु राम को नहीं सुनाया। जब श्रीराम ने उनसे पूछा- 'हनुमान ! त्रिभुवनविजयी रावण की लंका को तुमने कैसे जला दिया? तब प्रत्युत्तर में हनुमानजी ने जो कहा उससे भगवान राम भी हनुमानजी के आत्ममुग्धताविहीन व्यक्तित्व के कायल हो गए- सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ।। (सुंदरकांड) ।
सेवाभाव की प्रबलता
भारतीय-दर्शन में सेवाभाव को अत्यधिक महत्व दिया गया है। यह सेवाभाव ही हमें निष्काम कर्म के लिए प्रेरित करता है। अष्ट चिरंजीवियों में शुमार महाबली हनुमान अपने इन्हीं सद्गुणों के कारण देवरूप में पूजे जाते हैं और उनके ऊपर 'राम से अधिक राम के दास' की उक्ति चरितार्थ होती है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम स्वयं कहते हैं- जब लोक पर कोई विपत्ति आती है तब वह त्राण पाने के लिए मेरी अभ्यर्थना करता है, लेकिन जब मुझ पर कोई संकट आता है तब मैं उसके निवारण के लिए पवनपुत्र का स्मरण करता हूं। जरा विचार कीजिए! श्रीराम का कितना अनुग्रह है हनुमान पर कि वे अपने लौकिक जीवन के संकटमोचन का श्रेय उनको प्रदान करते हैं और कैसे शक्तिपुंज हैं हनुमान, जो श्रीराम तक के कष्ट का तत्काल निवारण कर सकते हैं।
हनुमान की पूजा
स्वामी रामकृष्ण परमहंस हनुमानजी के नाम-जप-निष्ठा का बराबर उदाहरण देते थे। भक्तों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था- 'मन के गुण से हनुमानजी समुद्र लांघ गये। हनुमानजी का सहज विश्वास था, मैं श्रीराम का दास हूं और श्रीराम नाम जपता हूं। अत: मैं क्या नहीं कर सकता?' स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा था- 'देश के कोने-कोने में महाबली श्री हनुमानजी की पूजा प्रचलित होनी चाहिए। दुर्बल लोगों के सामने महावीर का आदर्श उपस्थित करना चाहिए। देह में बल नहीं, हृदय में साहस नहीं, तो फिर क्या होगा इस जड़पिंड को धारण करने से ? मेरी प्रबल आकांक्षा है कि घर-घर में बज्रांग श्री हनुमान की पूजा और उपासना हो।' युवा शक्ति को हनुमान जी की पूजा से अधिक उनके चरित्र को आत्मसात करने की आवश्यकता है, जिससे भारत को उच्चतम नैतिक मूल्यों वाले देश के साथ-साथ 'कौशल युक्त' भी बनाया जा सके।