Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    प्रवृत्ति पथ में जो आचरणीय धर्म है, निवृत्ति मार्ग के लिए वही अधर्म है

    By Priyanka SinghEdited By: Priyanka Singh
    Updated: Mon, 23 Jan 2023 02:08 PM (IST)

    आत्म-ज्ञान द्वारा माया-वासना के आवरण को अंतकरण से मिटाना ही गीता का सार्वभौम उद्देश्य है। जीवन व शरीर रूपी कुरुक्षेत्र में प्रवृत्ति और निवृत्ति ही कौरव-पांडव हैं। प्रवृत्ति-पथ के पथिक के लिए जो आचरण धर्मसंगत है वही निवृत्ति मार्ग में अधार्मिक की श्रेणी में आ जाता है।

    Hero Image
    प्रवृत्ति पथ में जो आचरणीय धर्म है, निवृत्ति मार्ग के लिए वही अधर्म है

    नई दिल्ली, डा. रामानंद शुक्ल। वेदों में प्रवृत्ति व निवृत्ति दोनों मार्ग बताए गए हैं। साधनाएं प्रवृत्तिपरक या निवृत्ति मार्गी होती हैं। जिस साधना-सिद्धि से भौतिक उन्नति हो, उसे प्रवृत्तिपरक कहते हैं। इसके लिए सकाम कर्म करने पड़ते हैं। मोह-माया के जटिल विस्तार से गति-मुक्ति एवं निवृत्ति हेतु निष्काम मार्ग निर्धारित करना पड़ता है। बिना धर्म-ज्ञान, सदाचरण, त्याग तथा वैराग्य के यह संभव नहीं हो सकता। वेदों-उपनिषदों, स्मृति-पुराणों में इन विधि-विधाओं, धर्मों का उल्लेख है। श्रीमद्भगवद्गीता तो सबका सार ही है। प्रवृत्ति पथ में जो आचरणीय धर्म है, निवृत्ति मार्ग के लिए वही अधर्म भी है। साधक को सावधानी के साथ आत्मोपलब्धि की ओर सतत उन्मुख रहना पड़ता है। धन-संचय और भौतिक सुख-सुविधाओं का संग्रह प्रवृत्ति मार्ग में धर्म है तो निवृत्ति मार्ग में वही अवरोधक भी है। इसलिए उसका परित्याग ही धर्म है। प्रवृत्ति-पथ के पथिक के लिए जो आचरण धर्मसंगत है, वही निवृत्ति मार्ग में अधार्मिक की श्रेणी में आ जाता है।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    यहां धर्म का आशय उसके सहज स्वभाव-संस्कार से है। साधना में तो बाह्य-वृत्तियों से मन को विमुख करना पड़ता है। ये सब परम वीतराग भक्त के लिए बाधक और आत्मोपलब्धि में अनर्थकारी होने से सर्वथा त्याज्य हैं। इसमें सांसारिक दृष्टि से घृणा की न तो ध्वनि है और ना ही आशय। निवृत्ति मार्ग की साधना में विषय-वासना, कामोपभोग का परित्याग ही धर्म है। ब्रह्मचर्य के अधिकाधिक पालन से ही ब्रह्मोपलब्धि संभव होती है। वह भी मन-वचन, भावना और कर्म से।

    श्रीमद्भगवद्गीता सभी साधकों के लिए समान रूप से सार्वकालिक ग्राह्य है। पठनीय, मननीय और चिंतनीय है। आत्म-ज्ञान द्वारा माया-वासना के आवरण को अंत:करण से मिटाना ही गीता का सार्वभौम उद्देश्य है। जीवन व शरीर रूपी कुरुक्षेत्र में प्रवृत्ति और निवृत्ति ही कौरव-पांडव हैं। गुण-दोषरूपी दल-सेनाओं के बीच जो कृष्ण रूपी रसराज (आत्मा) को देखने-परखने का प्रयास करेगा, उसे व्यास-अर्जुन, सूर और मीरा की दृष्टि से ही देखना होगा। तभी वह निष्काम, पूर्णकाम होकर निवृत्ति मार्ग की साधना-सिद्धि में सफल होगा। निष्काम निवृत्ति मूलक साधक सदा संसार से विरत रहकर भक्ति-उपासना में लीन रहते हैं। योगी ध्यान-योग व समाधि द्वारा, कर्मयोगी ईश्वरार्पण भाव-बुद्धि से कर्म द्वारा, ज्ञानी ज्ञान-यज्ञ द्वारा, भक्त भक्ति द्वारा, नाद-ब्रह्मोपासक नादानुसंधान द्वारा सगुण-निर्गुण की आराधना में सदा लीन रहते हैं। अर्जुन के बहाने संपूर्ण संसार की जिज्ञासा-शंका का समाधान होता है गीता से। निराशा आशा में बदलती है। नई स्फूर्ति-चिंतन का विस्तार-विकास होता है। इसलिए सबके लिए समान रूप से उपयोगी है गीता।

    comedy show banner