देव कार्य से श्रेष्ठ है पितृ कार्य
पितृ पक्ष में नदी-तालाबों में पितरों को जल अर्पण-तर्पण करने का सिलसिला सोमवार से शुरू हो गया और श्राद्ध पक्ष का पहला तर्पण किया गया। सुबह श्रद्धालुओं ने नदी-तालाबों के किनारे जाकर स्नान-ध्यान किया और पितरों के निमित्त पूजा कर उंगली में कुश धारणकर पानी भरे परात में जौ, कुश,
पितृ पक्ष में नदी-तालाबों में पितरों को जल अर्पण-तर्पण करने का सिलसिला सोमवार से शुरू हो गया और श्राद्ध पक्ष का पहला तर्पण किया गया। सुबह श्रद्धालुओं ने नदी-तालाबों के किनारे जाकर स्नान-ध्यान किया और पितरों के निमित्त पूजा कर उंगली में कुश धारणकर पानी भरे परात में जौ, कुश, तिल डालकर पितरों को जल अर्पित किया। सोमवार को पहले दिन पूर्णिमा तिथि पर जिनकी मृत्यु हुई है, उन मृतकों को परिवार वालों ने श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए याद किया और पितरों के निमित्त अपने घर के दरवाजे पर लोटे में जल, दातून, फूल रखा। इसके पश्चात खीर, पूड़ी, तुरई की सब्जी, बड़ा, जलेबी आदि व्यंजन बनाए गए।
मान्यता के अनुसार कौआ, कुत्ता, गाय और चींटियों के लिए भोजन निकाला गया और फिर पितरों को अर्पण-तर्पण करके ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान-दक्षिणा भेंट की। तिल, जौ, कुश, उड़द का महत्व पं.मनोज शुक्ला के अनुसार पितृ पक्ष में कुछ विशेष तरह की पूजन सामग्री का महत्व है, इसमें तिल, जौ, कुशा, गेहूं, उड़द दाल, मूंग, धान, कांगुनी, मटर, कचनार, सरसो, हवन लकड़ी आम की, सुपानी, घी, शहद, पान का पत्ता आदि सामग्री का इस्तेमाल किया जाता है। माना जाता है कि पितरों की शांति के लिए हवन शांति पूजा अवश्य करवानी चाहिए और जितना जरूरी हो, उतनी ही हवन सामग्री खरीदनी चाहिए।
ऐसी मान्यता है कि पूजा के पश्चात ब्राह्मणों को कपड़े, धोती, गमछा व अन्य वस्तुएं दक्षिणा के रूप में देने से वह सामग्री पितरों को प्राप्त होती है। देव कार्य से श्रेष्ठ है पितृ कार्य ज्योतिष डॉ.दत्तात्रेय होस्केरे के अनुसार देव कार्य से भी बढ़कर पितृ कार्य श्रेष्ठ माना जाता है। देवी-देवता की पूजा न कर सकें तो कोई बात नहीं लेकिन अपने पूर्वजों को हमेशा याद करना चाहिए। यदि पितृ गण खुश हों तो परिवार में सुख-समृद्धि का वास होता है। अर्पण-तर्पण करने से पितृ दोष से मुक्ति मिलती है। पितृ पक्ष मध्या- काल में ही मनाया जाना चाहिए। कुंवारों का पंचमी व घात मृत्यु वालों का चतुर्दशी को प्रतिपदा तिथि पर नाना-नानी का श्राद्घ करने की परंपरा है, इसलिए जिन मृतकों के पुत्र नहीं हैं उनके नाती प्रतिपदा तिथि पर अपने नाना-नानी का श्राद्ध कर सकते हैं। कुंवारों का श्राद्घ पंचमी को और पिता के होते हुए माता की मृत्यु हुई हो तो माता का श्राद्ध नवमी तिथि को करना चाहिए। इसी तरह एकादशी व द्वाद्वशी पर संन्यासियों का तथा चतुर्दशी को दुर्घटना, आत्महत्या व घात मृत्यु वालों का श्राद्घ किया जा सकता है। जिनकी मृत्यु तिथि के बारे में जानकारी नहीं है उनका श्राद्ध महा अमावस्या को करना चाहिए। तीन पीढ़ी तक श्राद्ध का विधान शास्त्रों के अनुसार तीन पीढ़ी तक श्राद्ध करने का विधान है। पिता को वसु देवता, दादा को रुद्र देवता और परदादा को आदित्य देवता के रूप में पूजने की परंपरा है। किसी भी परिवार में पिता, दादा व परदादा तक का श्राद्ध करना चाहिए।