चिंतन धरोहर: घड़े के समान है जीवन, जिसमें एक छोटा सा भी छिद्र नहीं होना चाहिए
खाना पीना बोलना बैठना इत्यादि सब विषयों में नियमन चाहिए। मनचाही चाल चलें और इंद्रिय निग्रह साधें यह आशा व्यर्थ है। घड़े में तनिक सा छेद हो तो भी वह बेकार हो जाता है। उसी प्रकार जीवन भी घड़े के समान है उसमें छिद्र नहीं होना चाहिए- आचार्य विनोबा भावे

मनुष्य जीवन अनुभव का शास्त्र है। उस अनुभव की बदौलत मनुष्य समाज का काफी विकास हुआ है। किंतु हिंदू धर्म में उस अनुभव का शास्त्र रचकर एक विशिष्ट साधना की गई, जिसे ब्रह्मचर्य कहते हैं। अन्य धर्मों में भी संयम तो है ही, पर उसे शास्त्रीय रूप देकर हिंदू धर्म ने जिस प्रकार उसके लिए शब्द बनाया, वैसा शब्द अन्यत्र नहीं पाया जाता। छोटे वृक्ष को अच्छी से अच्छी खाद की जरूरत होती है। यों तो पोषण जन्म भर चाहिए, पर कम से कम बचपन में तो वह सबको मिलना ही चाहिए। इस दृष्टि से हिंदू धर्म ने ब्रह्मचर्य आश्रम को खड़ा किया। पर आज मैं उस आश्रम के संबंध में नहीं ब्रह्मचर्य के संबंध में कहने वाला हूं। अपने अनुभव से मेरा यह मत स्थिर हुआ है कि यदि आजीवन ब्रह्मचर्य रखना है तो ब्रह्मचर्य कल्पना अभावात्मक (नकारात्मक) नहीं होनी चाहिए। विषय सेवन मत करो, कहना अभावात्मक आज्ञा है, इससे काम नहीं बनता। सब इंद्रियों की शक्ति को आत्मा में खर्च करो, ऐसी भावात्मक (सकारात्मक) आज्ञा की आवश्यकता है।
ब्रह्मचर्य के संबंध में यह मत करो, कहकर काम नहीं बनता। यह करो, कहना चाहिए। ब्रह्मा अर्थात कोई भी वृहत कल्पना। कोई मनुष्य अपने बच्चे की सेवा उसे परमात्मा स्वरूप समझकर करता है और यह इच्छा रखता है कि उसका लड़का सत्पुरुष निकले, तो वह पुत्र ही उसका ब्रह्मा हो जाता है। उस बच्चे के निमित्त से उसका ब्रह्मचर्य पालन आसान होगा। माता बच्चे के लिए रात-दिन कष्ट सहती है, फिर भी अनुभव करती है कि उसने बच्चे के लिए कुछ नहीं किया। कारण, बच्चे पर उसका जो प्रेम है, उसकी तुलना में वह जो कष्ट उठाती है, वह उसे अल्प मालूम होता है। उसी प्रकार ब्रह्मïचारी मनुष्य का जीवन तप से संयम से ओतप्रोत रहता है, पर उसके सामने रहने वाली विशाल कल्पना के हिसाब से सारा संयम उसे अल्प ही जान पड़ता है। अपने देश की दीन जनता की की सेवा को ध्येय बनाने वाले के लिए वह सेवा उसका ब्रह्मï है। उसके लिए वह जो करेगा, वह ब्रह्मïचर्य है।
संक्षेप में कहना हो तो नैष्ठिक ब्रह्मचर्य पालन करने वाले की आंखों के सामने कोई विशाल कल्पना होनी चाहिए, तभी ब्रह्मचर्य आसान होता है। ब्रह्मचर्य को मैं विशाल ध्येयवाद और तदर्थ संयमाकरण कहता हूं। यह ब्रह्मïचर्य के संबंध में मैंने मुख्य बात बतलाई। दूसरी एक बात कहने को बच जाती है, वह यह कि जीवन की छोटी छोटी बातों में भी नियमन की आवश्यकता होती है।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।