डंडा नृत्य है यहां की होली की पहचान
छत्तीसगढ़ की पूरी संस्कृति लोकनृत्य और गीतों से सजी हुई है। यहां हर एक तीज त्योहार पर लोकनृत्य और गीतों का चलन है ...और पढ़ें

रायपुर। आबे आबे कान्हा तैं मोर अंगना दुआरी..फागुन के महीना में होली खेले के दारी...छत्तीसढ़िया मनखे हमन यहि हमर चिन्हारी...तोर संग होली खेले के आज हमर हे बारी...आबे आबे कान्हा..
कुछ इसी तरह के फाग गीतों के साथ शुरू होती है छत्तीसगढ़ की होली। छत्तीसगढ़ की पूरी संस्कृति लोकनृत्य और गीतों से सजी हुई है। यहां हर एक तीज त्योहार पर लोकनृत्य और गीतों का चलन है। फागुन माह में होली का त्योहार नजदीक आते ही गांवों की गलियों में फाग गीतों की तान छिड़ने लगती है और युवाओं की टोली डंडा लेकर डंडा नृत्य करती नजर आती है।
डंडा नृत्य छत्तीसगढ़ राज्य का लोकनृत्य है। इस नृत्य को 'सैला नृत्य' भी कहा जाता है। यह पुरुषों का सर्वाधिक कलात्मक और समूह वाला नृत्य है। डंडा नृत्य में ताल का विशेष महत्व होता है। डंडों की मार से ताल पैदा होती है। यही कारण है कि इस नृत्य को मैदानी भाग में 'डंडा नृत्य' और पहाड़ी भाग में 'सैला नृत्य' कहा जाता है। इस नृत्य में 50 -60 तक सम संख्या में नर्तक होते हैं।
ये धोती-कुर्ता के साथ जेकेट और गोंदा की माला से लिपटी हुई पगड़ी पहने होते हैं जिसमें मोर पंख लगे होते हैं। वहीं महिलाएं रंग बिरंगी सूती साड़ी के साथ पारंपरिक गहनों और गोंदे की माला से सजी नजर आती हैं। छत्तीसगढ़ में होली को होरी के नाम से जाना जाता है।
मुर्गी के अंडे को पूजते हैं
होलिका दहन स्थल में मुर्गी के अंडे को पूजकर कुंआरी यानि बबूल के छोटा पेड़ की लकडी में झंडा बांधकर गडाने से शुरू फाग गीत प्रथम पूज्य गणेश के आवाहन से साथ प्रारंभ होता है। और इसी के साथ होली के त्योहार का आगाज होता है। घरों की रसोई से पकवानों की खुशबू आने लगती है और पूरा माहौल रंग और रास से सराबोर होने लगता है।

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