ब्रह्मचर्य साधना
Celibacy गीता में ब्रह्मचर्य को शारीरिक तप कहा गया है। गांधी जी ने ब्रह्मचर्य की उपादेयता को ध्यान में रखकर मनुष्य के लिए जिन एकादश व्रतों का पालन आवश्यक बतलाया था उनमें सत्य-अहिंसा के साथ ब्रह्मचर्य प्रमुख है।
भारतीय ऋषियों ने निíवघ्न जीवन यात्र के लिए मानव जीवन को जिन चार आश्रमों (भागों) में विभक्त किया है। उसमें जीवन के प्रथम पच्चीस वर्ष ब्रह्मचर्य को प्राप्त हैं। ज्ञान प्राप्ति इस आश्रम का मुख्य उद्देश्य है। इसीलिए विद्यार्थी जीवन को ब्रह्मचर्य आश्रम कहा जाता है। विद्या की प्राप्ति द्वारा ही इसे सिद्ध किया जा सकता है। शास्त्रों में विद्या को मनवांछित फल प्रदान करने वाली कामधेनु कहा गया है, क्योंकि इसकी प्राप्ति से मनुष्य को कुछ भी अलभ्य नहीं रहता। इसीलिए शेष तीन आश्रमों की सफलता भी ब्रह्मचर्य की साधना पर ही निर्भर करती है। यह आश्रम न केवल अन्य तीनों आश्रमों की, अपितु मानव जीवन की बुनियाद है। जिस प्रकार बड़े से बड़ा महल खड़ा करने के लिए मजबूत बुनियाद की जरूरत होती है। उसी प्रकार मानव जीवन का भव्य महल भी ब्रह्मचर्य की सुदृढ़ बुनियाद पर खड़ा किया जा सकता है। अतएव स्वíणम भविष्य के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का परम कर्तव्य है।
गीता में ब्रह्मचर्य को शारीरिक तप कहा गया है। गांधी जी ने ब्रह्मचर्य की उपादेयता को ध्यान में रखकर मनुष्य के लिए जिन एकादश व्रतों का पालन आवश्यक बतलाया था उनमें सत्य-अहिंसा के साथ ब्रह्मचर्य प्रमुख है। चाहे जीवन का लौकिक पथ हो या आध्यात्मिक ब्रह्मचर्य जीवन की आधारशिला है। मंजिल की प्राप्ति ब्रह्मचर्य की साधना के बिना असंभव है। यही गांधी जी के रामराज्य का भी आधार है, क्योंकि रामराज्य की संकल्पना सदाचार के बिन कभी पूरी नहीं होती। इसी से मनुष्य की शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक शक्ति में वृद्धि होती है। रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने से शरीर स्वस्थ रहता है। सकारात्मक चिंतन क्षमता एवं चित्त की एकाग्रता बढ़ती है। विवेक शक्ति जाग्रत होने से समाज में अमंगल की आशंका नहीं होती। इसीलिए सामाजिक समरसता की स्थापना के लिए आज के समय में गांधी जी की प्रासंगिकता बढ़ गई है।
डा. सत्य प्रकाश मिश्र
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