Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck

    बंगाली समाज के लोग इस उत्सव के अंतिम पांच दिनों को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं

    By Preeti jhaEdited By:
    Updated: Sat, 17 Oct 2015 03:53 PM (IST)

    आनुष्ठानिक दुर्गा पूजा हमारे देश के प्रमुख त्योहारों में से एक है। हिन्दुओं का प्रमुख धार्मिक उत्सव होने के अलावा यह सामाजिक मेल-मिलाप और सामूहिक आनंद का भी उत्सव है। वैसे धार्मिक कर्मकांडों के नियमों के अनुसार दस दिनों के व्रत, उपवास एवं आराधना की परंपरा है फिर भी बंगाली

    आनुष्ठानिक दुर्गा पूजा हमारे देश के प्रमुख त्योहारों में से एक है। हिन्दुओं का प्रमुख धार्मिक उत्सव होने के अलावा यह सामाजिक मेल-मिलाप और सामूहिक आनंद का भी उत्सव है। वैसे धार्मिक कर्मकांडों के नियमों के अनुसार दस दिनों के व्रत, उपवास एवं आराधना की परंपरा है फिर भी बंगाली समाज के लोग इस उत्सव के अंतिम पांच दिनों को ही बड़ी धूमधाम से मनाते हैं।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    इन पांचों दिनों में दुर्गोत्सव के पंडाल में सिंहवाहिनी माता दुर्गा अपने दोनों पुत्रों, कार्तिकेय और गणेश एवं दोनों पुत्रियों लक्ष्मी और सरस्वती (जी हां, बंगाली समाज इन पांचों दिनों में माता लक्ष्मी और माता सरस्वती को दुर्गा माता की पुत्रियों के रूप में देखता है) के साथ उपस्थित रहती हैं।

    दुर्गोत्सव हर वर्ष हिन्दुओं के कैलेन्डर के अनुसार आश्विन माह में मनाया जाता है। यह समय वर्षा के ठीक बाद शरद ऋतु का है और इसलिए इसे 'शारदीय दुर्गोत्सव' भी कहते हैं। वैसे पुराणों के अनुसार सुरथ नामक राजा बसंत ऋतु में दुर्गा पूजा किया करते थे। बसंत ऋतु की इस पूजा की परंपरा आज भी जीवित है और इसे 'बासन्ती पूजा कहते हैं। रावण के साथ युद्ध आरंभ करने के पहले राम ने भी विजय की कामना लिए शक्ति की आराधना की थी।

    आकर्षक पंडाल और धुनुची नृत्य

    दुर्गा पूजा के पंडाल को बड़े ही कलात्मक ढंग से सजाया जाता है। इस पंडाल में सुबह से लेकर देर रात तक पूजन, बलि, आरती, पुष्पांजलि, भोग आदि के कई कार्यक्रम होते हैं। संध्या की आरती के समय 'धुनुची' नृत्य दर्शनीय होता है। बंगाल के विशेष प्रकार के ताल वाद्य 'ढाक' की ताल पर भक्तगण धूप की मदद से 'धुनुची नृत्य' करते हुए देवी की आरती करते हैं। ढाक को बजाने वाले 'ढाकी' कहलाते हैं। ढाकी लोग बड़े ही कलात्मक ढंग से नाना प्रकार के करतब करते हुए, नाचते हुए ढाक बजाते हैं।

    संध्या के समय सांस्कृतिक कार्यक्रमों की भी प्रथा सार्वजनिक दुर्गोत्सवों के साथ आरंभ हो गई। भजन, कीर्तन, काव्य पाठ आदि के अलावा बंगाल के लोकनाट्य 'जात्रा' के भी आयोजन होने लगे। यह आयोजन षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी की रातों में होते हैं। समाज के युवा, बालक और बुजुर्ग लोग इन सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तैयारी बड़ी उमंग के साथ हफ्तों पहले से आरंभ कर देते हैं। आधुनिक काल में नाटकों का मंचन भी होने लगा है।

    ऐसे गढ़ी जाती है प्रतिमा

    पारंपरिक दुर्गा प्रतिमा अपनी चारों 'संतानों' तथा अपने सिंह वाहन के साथ मिट्टी से गढ़ी जाती है। प्रतिमा में उनका महिषासुर-मर्दिनी रूप दिखाने के लिए महिष के रूप में बाहर निकले हुए महिषासुर को भी बनाया जाता है। इस प्रकार बनी हुई संपूर्ण प्रतिमा को 'ऍक चाला' प्रतिमा कहते हैं। मिट्टी की प्रतिमा को सजाने के लिए दो तरह की व्यवस्थाएं प्रचलित हैं, 'शोलार शाज एवं 'डाकेर शाज"। शोलार शाज अथवा शोला द्वारा सजावट। दलदलों में उगने वाले शोला नामक डंठलों के सफेद गूदे को तराश कर, उसे नाना प्रकार के कलात्मक रूप देकर यह सजावट की जाती है। माता के धनवान भक्तों ने सजावट तथा गहनों के लिए चांदी के वरक का प्रयोग शुरू कर दिया। उन दिनों चांदी जर्मनी से आयात की जाती थी एवं डाक के द्वारा पहुंचती थी, इसी कारण इस प्रकार की सजावट को लोग 'डाकेर शाज' कहने लगे।

    षष्ठी से होता है आरंभ

    पूजा के उत्सव का आरभ षष्ठी की संध्या के समय होता है जब देवी की प्राण प्रतिष्ठा होती है। उस दिन बंगाली समाज के लोग घर से नए परिधान पहनकर आकर पूजा के पंडाल में एकत्रित होते हैं और एक-दूसरे को बधाई देते हैं। लोग अपने बुजुर्गों को प्रणाम करते हैं और उनसे आशीर्वाद लेते हैं। बाद में माता के स्वागत के लिए 'आगोमोनी' गीतों का कार्यक्रम होता है। सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी के दिनों में हिन्दू ध्ार्म के नियमों के अनुसार माता की पूजा-आरती तथा पुष्पांजलि होती है। सभी लोग एक ही जगह बैठकर माता के प्रसाद का भोग स्वीकार करते हैं।

    आशीर्वाद के रूप में सिंदूर

    दशमी के दिन माता को विदाई दी जाती है। बंगाली समाज ने पुत्र-पुत्रियों के साथ दुर्गा माता के पांच दिवस के इस आगमन को अपनी कल्पना से एक अद्भुत रूप दिया है। जिस प्रकार भारतीय समाज में बेटी अपनी संतान के साथ छुट्टी मनाने के लिए वर्ष में एक बार अपने मायके जाती है, उसी प्रकार बंगाली समाज में यह कल्पना की जाती है कि दुर्गा माता पांच दिवस के लिए अपने मायके में आती है। इसलिए माता की विदाई के समय सुहागन महिलाएं माता को सिंदूर लगाकर उनसे आशीर्वाद लेती हैं। माता को सिंदूर लगाने के पश्चात वे सभी स्वयं से बड़ी महिलाओं को सिंदूर लगाकर उनसे आशीर्वाद लेती हैं।

    कालांतर में महिलाएं एक-दूसरे से चुहल करते हुए एक-दूसरे की मांग के अलावा गालों पर भी सिंदूर मलकर एक प्रकार से सिंदूर की होली खेलने लगीं। इसी को आजकल 'शिंदूर खॅला' कहते हैं। तत्पश्चात ढाक, ढोल, कांसर, घंटे आदि की आवाजों को मिलाकर दुर्गा माता की जय-जयकारों के साथ धुनूची नृत्य नाचते हुए माता का भव्य जुलूस निकाला जाता है और प्रतिमा को विसर्जित किया जाता है।