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    एक किंवदंती के अनुसार शिप्रा नदी विष्णु जी के रक्त से उत्पन्न हुई थी

    By Preeti jhaEdited By:
    Updated: Thu, 25 Feb 2016 12:10 PM (IST)

    उज्जैन की शिप्रा नदी, जहां हर 12 वर्ष बाद सिंहस्थ कुंभ का आयोजन किया जाता है। कुंभ विश्व का सबसे बड़ा मेला है। एक किंवदंती के अनुसार शिप्रा नदी विष्णु जी के रक्त से उत्पन्न हुई थी।

    उज्जैन की शिप्रा नदी, जहां हर 12 वर्ष बाद सिंहस्थ कुंभ का आयोजन किया जाता है। कुंभ विश्व का सबसे बड़ा मेला है। एक किंवदंती के अनुसार शिप्रा नदी विष्णु जी के रक्त से उत्पन्न हुई थी।

    ब्रह्म पुराण में भी शिप्रा नदी का उल्लेख मिलता है। संस्कृत के महाकवि कालिदास ने अपने काव्य ग्रंथ 'मेघदूत' में शिप्रा का प्रयोग किया है, जिसमें इसे अवंति राज्य की प्रधान नदी कहा गया है।

    महाकाल की नगरी उज्जैन, शिप्रा के तट पर बसी है। स्कंद पुराण में शिप्रा नदी की महिमा लिखी है। पुराण के अनुसार यह नदी अपने उद्गम स्थल बहते हुए चंबल नदी से मिल जाती है। प्राचीन मान्यता है कि प्राचीन समय में इसके तेज बहाव के कारण ही इसका नाम शिप्रा प्रचलित हुआ।

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    शिप्रा नदी का उद्गम स्थल मध्यप्रदेश के महू छावनी से लगभग 17 किलोमीटर दूर जानापाव की पहाडिय़ों से माना गया है। यह स्थान भगवान विष्णु के अवतार भगवान परशुराम का जन्म स्थान भी माना गया है। शिप्रा नदी की उत्तपत्ति के बारे में एक पौराणिक कथा का उल्लेख, हिंदू धर्मग्रंथों में मिलता है।


    बहुत समय पहले भगवान शिव ने ब्रह्म कपाल लेकर, भगवान विष्णु से भिक्षा मांगने पहुंचे। तब भगवान विष्णु ने उन्हें अंगुली दिखाते हुए भिक्षा प्रदान की। इस अशिष्टता से भगवान भोलेनाथ नाराज हो गए और उन्होंने तुरंत अपने त्रिशूल से विष्णु जी की उस अंगुली पर प्रहार कर दिया।अंगुली से रक्त की धारा बह निकली। जो विष्णुलोक से धरती पर आ पहुंची। और इस तरह यह रक्त की यह धार, शिप्रा नदी में परिवर्तित हो गई।

    शिप्रा नदी के किनारे स्थित घाटों का भी पौराणिक महत्व है। जिनमें रामघाट मुख्य घाट माना जाता है। कहते हैं भगवान श्रीराम ने पिता दशरथ का श्राद्धकर्म और तर्पण इसी घाट पर किया था। इसके अलावा नृसिंह घाट, गंगा घाट, पिशाचमोचन तीर्थ, गंधर्व तीर्थ भी प्रमुख घाट हैं।

    शिप्रा नदी के किनारे स्थित सांदीपनी आश्रम में भगवान श्रीकृष्ण, बलराम और उनके प्रिय मित्र सुदामा ने विद्या अध्ययन किया था। हिंदू धर्मग्रंथों में वर्णित है कि राजा भर्तृहरि और गुरु गोरखनाथ ने भी इस पवित्र नदी के तट पर तपस्या से सिद्धि प्राप्त की।